हाईकोर्ट का बड़ा फैसला : हिन्दुओं में आसानी से नहीं होगा तलाक, कॉन्ट्रैक्ट की तरह समाप्‍त नहीं कर सकते हिन्‍दू विवाह

हिन्दुओं में आसानी से नहीं होगा तलाक, कॉन्ट्रैक्ट की तरह समाप्‍त नहीं कर सकते हिन्‍दू विवाह
UPT | हाई कोर्ट

Sep 15, 2024 18:10

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने हिन्दू विवाह के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय देते हुए कहा है कि हिन्दू विवाह को एक साधारण अनुबंध(कॉन्ट्रैक्ट) की तरह समाप्त नहीं किया जा सकता।

Sep 15, 2024 18:10

Prayagraj News : इलाहाबाद हाई कोर्ट ने हिन्दू विवाह के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय देते हुए कहा है कि हिन्दू विवाह को एक साधारण अनुबंध(कॉन्ट्रैक्ट) की तरह समाप्त नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि हिन्दू विवाह एक शास्त्र सम्मत और संस्कार आधारित संस्था है, जिसे केवल कुछ विशिष्ट और सीमित परिस्थितियों में ही कानूनी रूप से भंग किया जा सकता है। यह निर्णय पति-पत्नी के बीच तलाक के विवाद से जुड़े एक मामले में सुनाया गया। कोर्ट ने तलाक के संबंध में साक्ष्यों और परिस्थितियों के आधार पर ही निर्णय लेने की आवश्यकता बताई।

तलाक के खिलाफ महिला की अपील स्वीकार
न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह और न्यायमूर्ति डोनाडी रमेश की खंडपीठ ने महिला द्वारा तलाक के खिलाफ दायर की गई अपील को स्वीकार करते हुए कहा कि निचली अदालत को तलाक का आदेश केवल तभी देना चाहिए था जब पति-पत्नी के बीच पारस्परिक सहमति तलाक के दिन तक बनी रहती। कोर्ट ने कहा कि एक बार जब महिला ने अपनी सहमति वापस ले ली, तो निचली अदालत उसे पहले दिए गए सहमति पत्र का पालन करने के लिए बाध्य नहीं कर सकती थी। खासकर तब जब सहमति वापस लिए जाने के तीन साल बाद तलाक का निर्णय सुनाया गया।

न्याय का मजाक न बने
हाई कोर्ट ने कहा कि "इस तरह के मामले में सहमति को अनदेखा करना न्याय का मजाक होगा।" कोर्ट ने तलाक के मामले में निचली अदालत द्वारा दिए गए निर्णय पर सवाल उठाते हुए कहा कि तलाक की प्रक्रिया में केवल पहले दिए गए बयान को ही आधार बनाना उचित नहीं था, खासकर जब महिला ने स्पष्ट रूप से अपनी सहमति वापस ले ली थी। महिला ने 2011 में बुलंदशहर के अतिरिक्त जिला न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें पति की तलाक की याचिका को मंजूरी दी गई थी।

ये है मामला
मामला 2006 में हुई शादी से जुड़ा था, जब पति भारतीय सेना में कार्यरत थे। 2007 में पत्नी ने अपने पति को छोड़ दिया, जिसके बाद 2008 में पति ने तलाक की अर्जी दाखिल की। इसके बाद पति-पत्नी के बीच मध्यस्थता की प्रक्रिया शुरू हुई, जिसमें प्रारंभ में दोनों पक्षों ने अलग-अलग रहने की सहमति दी थी। हालांकि, बाद में पत्नी ने अपनी सहमति वापस ले ली और कहा कि वह अपने पिता के साथ रह रही है।

निचली अदालत का निर्णय
निचली अदालत ने तलाक की याचिका को मंजूरी दे दी, लेकिन हाई कोर्ट ने इस फैसले को चुनौती देते हुए कहा कि तलाक का निर्णय केवल पहले दिए गए लिखित बयान के आधार पर नहीं लिया जा सकता था। कोर्ट ने कहा कि तलाक के मामलों में पारस्परिक सहमति का होना जरूरी है, और एक बार जब कोई पक्ष अपनी सहमति वापस ले लेता है, तो निचली अदालत को इस बात का ध्यान रखना चाहिए।

कोर्ट का अंतिम निर्णय
महिला की ओर से पेश वकील महेश शर्मा ने अदालत के सामने दलील दी कि तलाक की कार्यवाही के दौरान सभी घटनाक्रम और दस्तावेज अदालत के समक्ष प्रस्तुत किए गए थे, लेकिन निचली अदालत ने उन्हें नजरअंदाज कर केवल पहले के लिखित बयान के आधार पर तलाक की याचिका को मंजूरी दी। इस पर हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया कि तलाक का निर्णय तब तक नहीं लिया जा सकता जब तक दोनों पक्षों के बीच सहमति बनी रहती है।

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