नागा संन्यासी भारतीय संस्कृति और धर्म की एक अनोखी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हें 8वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने दशनामी परंपरा के तहत संगठित किया था। वे न केवल धार्मिक तपस्वी होते हैं, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर योद्धा के रूप में भी कार्य करते हैं।
महाकुंभ मे नागा संन्यासियों का नगर प्रवेश : आदि शंकराचार्य की दीक्षा से लेकर अफगानी आक्रांताओं से रक्षा तक, जानिए इनकी अद्भुत दुनिया के बारे में

Dec 19, 2024 13:25
Dec 19, 2024 13:25
नागा संन्यासियों का संगठन और प्रयाग की रक्षा
दशनामी नागा संन्यासियों की यह गौरवशाली गाथा श्रीमहंत लालपुरी द्वारा लिखित पुस्तक "दशनाम नागा संन्यासी" में वर्णित है। इस पुस्तक के अनुसार, नागा संन्यासियों का नेतृत्व राजेंद्र गिरि नामक वीर योद्धा ने किया था। उन्होंने झांसी से 32 मील दूर मोठ नामक स्थान पर नागाओं को संगठित किया और 114 गांवों पर अधिकार स्थापित करके एक दुर्ग का निर्माण कराया।
अफगानी आक्रमण और अत्याचार
17वीं शताब्दी के दौरान अफगानी और बंगश रोहिलों के अत्याचारों से प्रयाग की जनता त्रस्त थी। दिनदहाड़े लूटपाट, महिलाओं के सम्मान पर आघात और निरंतर हमले आम बात बन गए थे। लोग अपने गांव और शहर छोड़ने को मजबूर हो गए थे। उस समय मुगल शासक अहमद शाह ने अवध के नवाब सफदरजंग को सत्ता दी, जिससे अफगान विद्रोही हो गए। अफगानों ने फर्रुखाबाद के निकट राम चौतनी नामक स्थान पर सफदरजंग को हराकर प्रयाग को घेर लिया। दुर्ग के रक्षक कम संख्या में थे और अफगानों के हमलों का मुकाबला करने में असमर्थ थे।
नागा संन्यासियों की विजय
प्रयाग के संकट की खबर सुनकर राजेंद्र गिरि ने नागा संन्यासियों की विशाल वाहिनी तैयार की और प्रयाग पर हुए अफगानी आक्रमण का सामना किया। उन्होंने अफगानों की घेराबंदी तोड़ी और जनता को उनके अत्याचारों से मुक्ति दिलाई। उनके शिष्य उमराव गिरि और अनूप गिरि ने भी इस युद्ध में अद्वितीय पराक्रम दिखाया। इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार ने अपनी पुस्तक "दशनाम नागा संन्यासियों का इतिहास" में इस युद्ध का वर्णन किया है। उन्होंने नागा योद्धाओं के वीरतापूर्ण कार्यों और उनकी अनुशासित सेना के बारे में विस्तार से लिखा है।
नगर प्रवेश की परंपरा
नागा संन्यासियों की इस विजय के बाद, उनके सम्मान में प्रयाग के नागरिकों ने ढोल-नगाड़ों और बाजे-गाजे के साथ उनका स्वागत किया। यह आयोजन नगर प्रवेश के रूप में मनाया गया। उस दिन से यह परंपरा महाकुंभ का अभिन्न हिस्सा बन गई। महानिर्वाणी अखाड़े के सचिव महंत रवींद्र पुरी बताते हैं, "नगर प्रवेश की परंपरा नागा संन्यासियों के शौर्य और पराक्रम का प्रतीक है। अफगान आक्रमणकारियों से प्रयाग की रक्षा के बाद, नागा संन्यासियों ने नगर प्रवेश किया और तभी से यह परंपरा जारी है।
नागा संन्यासियों का इतिहास
नागा संन्यासी भारतीय संस्कृति और धर्म की एक अनोखी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हें 8वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने दशनामी परंपरा के तहत संगठित किया था। वे न केवल धार्मिक तपस्वी होते हैं, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर योद्धा के रूप में भी कार्य करते हैं। नागा संन्यासियों का मुख्य उद्देश्य धर्म की रक्षा करना है। उनकी सैन्य कुशलता और संगठन क्षमता ने कई ऐतिहासिक युद्धों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। प्रयाग की रक्षा इन योद्धाओं की ऐसी ही एक वीरगाथा है, जिसे नगर प्रवेश की परंपरा द्वारा महाकुंभ में हर बार याद किया जाता है।
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