माना जाता है कि गोवर्धन पर्वत के हर छोटे-बड़े पत्थर में श्री कृष्ण का वास है। गुरु पूर्णिमा पर गोवर्धन की परिक्रमा करने लाखों श्रद्धालु आते हैं। मथुरा से 21 किमी और वृंदावन से 23 किमी की दूरी पर गोवर्धन पर्वत स्थित है। इस दिन सभी शिष्य अपने गुरुओं की विधि विधान से पूजा करते है
गुरु पूर्णिमा पर गोवर्धन परिक्रमा क्यों : भगवान श्रीकृष्ण ने पहली बार की थी गोवर्धन की पूजा, एकादशी से पूर्णिमा तक भक्तों की उमड़ेगी भीड़
Jul 20, 2024 23:51
Jul 20, 2024 23:51
- गोवर्धन की परिक्रमा करने लाखों श्रद्धालु आते हैं
- गोवर्धन पर्वत के हर छोटे-बड़े पत्थर में श्री कृष्ण का वास है
गुरु पूर्णिमा का पर्व हिन्दू संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पर्व है। यह परंपरा तब से चली आ रही है जब से भगवान कृष्ण भी गुरुकुल जा कर शिक्षा ग्रहण किया करते थे। हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को यह पर्व मनाया जाता है और इस दिन सभी शिष्य अपने गुरुओं की विधि विधान से पूजा करते हैं।
यहां की परिक्रमा का इतना महत्व क्यों है?
माना जाता है कि गोवर्धन पर्वत के हर छोटे-बड़े पत्थर में श्री कृष्ण का वास है। द्वापर में यदुवंशियों के गुरू महामुनि गर्ग ने अपनी संहिता में लिखा है- जब पहली बार गोवर्धन पूजा हुई थी तब इसकी पहली परिक्रमा श्रीकृष्ण ने की थी। उनके पीछे पूरा ब्रज था। गोवर्धन श्रीकृष्ण का ही रूप हैं। इसकी एक शिला के दर्शन करने से व्यक्ति का दोबारा धरती पर जन्म नहीं होता। उसे मोक्ष मिल जाता है। कृष्ण के समय से लेकर आज तक भक्त लगातार गोवर्धन की परिक्रमा करते आ रहे हैं।
श्रीकृष्ण ने खुद गोवर्धन को पहली बार क्यों पूजा?
जब कृष्ण ने ब्रजवासियों को मूसलधार वर्षा से बचाने के लिए सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी उँगली पर उठाकर रखा और गोप-गोपिकाएँ उसकी छाया में सुखपूर्वक रहे। सातवें दिन भगवान ने गोवर्धन को नीचे रखा और प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा करके अन्नकूट उत्सव मनाने की आज्ञा दी। तभी से यह उत्सव अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा।
पुलस्त्य के श्राप से तिल-तिल घट रहा पर्वत
प्राचीन पुराणों में वर्णित एक रोचक कथा के अनुसार, गोवर्धन पर्वत की वर्तमान स्थिति एक प्राचीन श्राप का परिणाम है। कहा जाता है कि पुलस्त्य मुनि गोवर्धन पर्वत को अपने हाथों में लेकर ब्रज क्षेत्र की ओर चल पड़े, जो राधा और कृष्ण के जन्मस्थान के रूप में प्रसिद्ध है। ब्रज पहुंचते ही गोवर्धन ने अपना वजन बढ़ा लिया, जिससे थके हुए मुनि उसे उठाने में असमर्थ हो गए। क्रोधित होकर पुलस्त्य ने पर्वत को श्राप दिया कि वह प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा करके छोटा होता जाएगा। यह मान्यता है कि तब से लेकर आज तक गोवर्धन पर्वत निरंतर छोटा होता जा रहा है। वर्तमान में इसकी ऊंचाई लगभग 30 मीटर रह गई है, जो इस पौराणिक कथा को और भी रहस्यमय बना देती है।
कृष्ण द्वारा स्थापित परंपरा और इंद्र के अहंकार का शमन
हिंदू धर्म में गोवर्धन पूजा का महत्व भगवान कृष्ण के समय से चला आ रहा है। द्वापर युग में, जब ब्रजवासी इंद्र देवता की पूजा करते थे, कृष्ण ने इस प्रथा को बदलने का निर्णय लिया। उन्होंने तर्क दिया कि गोकुलवासियों के वास्तविक पालनहार गोवर्धन पर्वत हैं, न कि इंद्र। गोवर्धन पर्वत ग्वालों की गायों को चारा प्रदान करता था, जो लोगों के लिए दूध का स्रोत था। इस प्रकार, कृष्ण ने गोकुलवासियों को गोवर्धन पर्वत की पूजा करने के लिए प्रेरित किया। आज भी, इस परंपरा को निभाते हुए, लोग गाय के गोबर से गोवर्धन पर्वत का प्रतीक बनाकर उसकी पूजा करते हैं। यह त्योहार न केवल प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक है, बल्कि इंद्र के अहंकार को तोड़ने और सच्चे पालनहार की पहचान करने की कृष्ण की शिक्षा का भी स्मरण कराता है।
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