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देवरिया के रोचक सियासी किस्से : एक दौर था, जब राजनीति से बढ़कर कुछ और था, पढ़‍ि‍ए दिल छू देने वाली कहानी

एक दौर था, जब राजनीति से बढ़कर कुछ और था, पढ़‍ि‍ए दिल छू देने वाली कहानी
UP Times | Political equation of Deoria

Dec 20, 2023 16:50

देवरिया जिले का राजनीतिक इतिहास बहुत ही रोचक रहा है। तब राजनीति जात-पात से बहुत ऊपर हुआ करती थी। कई राजनीतिक किस्‍से और कहानियां इस जिले में मिलते हैं। जानते हैं इस जिले की राजनीति का दिलचस्‍प सफर।  

Dec 20, 2023 16:50

Short Highlights
  • राजनीतिक सफर
  • देवरिया में पहले एक दौर था, जब राजनीति से बढ़कर भी कुछ और था
  • पढ़‍ि‍ए दिल छू देने वाली कहानी
Deoria News : इस जिले का राजनीतिक इतिहास बहुत ही रोचक रहा है। तब राजनीति जात-पात से बहुत ऊपर हुआ करती थी। कई राजनीतिक किस्‍से और कहानियां इस जिले में मिलते हैं। जानते हैं इस जिले की राजनीति का दिलचस्‍प सफर।     

कांग्रेस का रहा कब्‍जा

माना जाता है कि देवरिया नाम की उत्पत्ति देवपुरिया से हुई है। देवरिया का अर्थ होता है, जहां बहुत सारे मंदिर होते हैं। देवरिया जिला पूर्वी उत्तर प्रदेश में आता है। जिसका निर्माण 16 मार्च 1946 को किया गया था। वहीं 1994 में देवरिया से अलग एक और नया जिला पडरौना बनाया गया। जिसका 1997 में नाम बदलकर कुशीनगर कर दिया गया। देवरिया लोकसभा सीट पर शुरू से ही कांग्रेस का कब्जा रहा है, लेकिन 39 साल बाद यानी कि 1991 के बाद कांग्रेस की स्थिति कमजोर होने लगी थी। जिसके बाद लड़ाई बीजेपी, सपा और बसपा के बीच होने लगी। देवरिया से कांग्रेस के विश्वनाथ राय लगातार 4 बार सांसद रहे। वहीं 1999, 2009 और 2014 में बीजेपी ने यहां जीत का परचम लहराया। उसके बाद 2019 में हुए लोकसभा चुनावों में भी बीजेपी ही काबिज रही। 

इनकी जमानत हो गई थी जब्‍त

इस लोकसभा सीट पर शुरू से ही कांग्रेस काबिज रही थी, लेकिन 1991 के बाद कांग्रेस कमजोर होती चली गई। इसके बाद लड़ाई बीजेपी, सपा और बसपा के बीच ठन गई। देवरिया से कांग्रेस के विश्वनाथ राय लगातार 4 बार 1952, 1957, 1962, 1967 में विजेता रहे और 1970 तक अपनी धाक जमाए रखी। वहीं पार्टी में इनका स्थान अहम रहता था। वहीं इस लोकसभा सीट से राजमंगल पांडे 1984 और 1989 में सांसद निर्वाचित हुए, लेकिन 1991 के आम चुनावों में वह अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए थे। यहां से 1991 में जनता दल के टिकट पर मोहन सिंह सांसद बने थे। लंबे अंतराल के बाद बीजेपी ने 1996 में यहां जीत की शुरुआत की। बीजेपी के प्रत्याशी प्रकाश मणि त्रिपाठी यहां से सांसद बने थे। 

देवरिया संसदीय क्षेत्र की जनसंख्या

देवरिया जिले की जनसंख्या 31 लाख से अधिक है। सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्र में इसका स्थान 32वां स्‍थान है। यहां कुल जनसंख्या 31 लाख 946 हैं। जिसमें पुरुषों की संख्या 15 लाख 37 हजार 436 हैं और महिलाओं की संख्‍या 15 लाख 63 हजार 510 है। दोनों की संख्या लगभग बराबर है। वहीं जातिवार जनसंख्‍या की बात करें, तो यहां सामान्य वर्ग की जनसंख्या 81 प्रतिशत है। शेष 19 प्रतिशत में 15 प्रतिशत में अनुसूचित जाति और केवल 4 प्रतिशत में अनुसूचित जनजाति के लोग शामिल हैं। एक आंकड़े के अनुसार यहां 81.10 फीसदी हिंदू वास करते हैं और 11.6 फीसदी मुस्लिम लोग हैं। देविरया लोकसभा संसदीय क्षेत्र में लिंगानुपात पुरुषों से भी ज्यादा है। यहां 1000 पुरुषों पर 1,017 महिलाएं हैं। साक्षरता दर भी यहां ठीक-ठाक है। यहां 71 फीसदी साक्षरता हैं। जिसमें पुरुषों की संख्या 83 प्रतिशत है, जबकि महिलाओं की साक्षरता 59 प्रतिशत है।

एक ये राजनीतिक दौर है

हाल ही कुछ दिन पहले द‍ेवरिया जिले में हुई एक घटना ने पूरे प्रदेश को हिलाकर रख दिया। जहां देवरिया जिले के रुद्रपुर थाना क्षेत्र में फतेहपुर गांव के टोला लेहड़ा में 2 अक्टूबर को सत्यप्रकाश दुबे के घर के पास प्रेमचंद यादव की हत्या हो गई थी। जिसके बाद प्रेम यादव के समर्थकों ने सत्यप्रकाश दूबे के घर में घुसकर, वहां मौजूद सभी 6 लोगों पर जानलेवा हमला कर दिया था। जिसमे 5 लोगों की मौत हो गई थी। वहीं इस वारादात में मृतक सत्य प्रकाश दूबे के 8 साल के बेटे को गंभीर हालत में अस्‍पताल में भर्ती कराया गया था। इलाज के बाद वह ठीक हो गया। वहीं इस कांड में छह लोगों की जान गई थी। जिसके बाद राजनीतिक दलों में जातिवादी राजनीति‍ चालू हो गई थी। कोई नेता दूबे के घर जाता था तो कोई प्रेमचंद यादव के घर और इस मामले को राजनीतिक तूल देने के अथक प्रयास किए गए। 

एक वो दौर भी था

देवरिया जिले में करीब 44 साल पहले भी एक बड़ा कांड हुआ था। जहां फतेहपुर से लगभग 45 किमी दूर नारायणपुर गांव (तब देवरिया और अब कुशीनगर में) में इं‍सानियत को झकझोर देने वाली वारदात को अंजाम दिया गया था। जिस तरह देवरिया में 2 अक्‍टूबर 2023 को हुए प्रेमचंद यादव और सत्‍यप्रकाश दूबे हत्‍याकांड जैसा बड़ा कांड हुआ था। खबरों के अनुसार उसमें भी राजनीतिक प्रभाव शामिल था। उस घटना की गूंज विधानसभा तक पहुंची थी। जिसमें 11 जनवरी 1980 को एक बस ने एक वृद्ध महिला को कुचल दिया था। जिसको लेकर ग्रामीणों ने वाहन मालिक से मुआवजे की मांग की थी। मुआवजे की सहमति नहीं बनने पर ग्रामीणों ने विरोध दर्ज कराया था। जिसके बाद 14 जनवरी को मकर संक्रांति की रात (इस दिन इंदिरा गांधी ने पीएम पद की शपथ ली थी) पु‍लिस ने ग्रामीणों पर हमला किया। कथित तौर पर लूटपाट, मारपीट और महिलाओं के साथ बलात्‍कार तक किए गए। इसमें कम से कम दो लोगों मारे गए थे।  

लखनऊ तक पहुंचने में लगा था एक सप्‍ताह

इस गांव में अधिकांश लोग अनुसूचित जाति और मुस्लिम थे। बड़ी बात ये थी कि नारायणपुर की घटना को राज्‍य की राजधानी लखनऊ तक पहुंचने में एक सप्‍ताह से अधिक का समय लगा गया था। 8 फरवरी 1980 को मुख्‍यमंत्री बनारसी दास ने विधानसभा को बताया था कि उन्‍हें इस घटना की जानकारी 23 जनवरी को एक अखबार की रिपोर्ट के माध्‍यम से मिली। नारायणपुर की यह घटना उस दौरान हुई थी, जब राज्‍य सरकार बुरे दौर से गुजर रही थी। सीएम ने पास के ही देवरिया बरहज विधानसभा क्षेत्र से विधायक और सरकार में लघु उद्योग मंत्री मोहन सिंह को गांव का दौरा करने का निर्देश दिया। इस मामले पर विधानसभा में तीन बार अलग-अलग नियमों के तहत चर्चा हुई और हर बार जनता पार्टी के विधायक इस विषय पर विपक्षी दलों की तुलना में अधिक आक्रामक थे। इस मामले में पीड़‍ित दलित थे, लेकिन दिलचस्‍प बात ये थी, कि मोहन सिंह एक राजपूत थे और वे पूरे दिल से नारायणपुर के पीड़‍ितों के साथ खड़े थे। वहीं इस मामले को अन्‍य नेताओं ने भी विधानसभा में उठाया। बांकेलाल ने तो पद से इस्‍तीफा देने की भी इच्‍छा जताई थी। 

बर्खास्‍त कर दी गई थी सरकार

इस मामले में आखिरकार एसएसपी और डीआईजी का तबादला कर दिया गया और तीन थानेदारों को निलंबित कर दिया गया। साथ ही मामले में न्‍यायिक जांच के आदेश दिए गए। वहीं जब राजनीति चरम पर थी, तो बहुमत के साथ लौटी कांग्रेस की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गांव का दौरा किया। साथ ही उन्‍होंने कहा था कि बनारसी दास की सरकार को अस्तित्‍व में रहने का कोई अधिकार नहीं था। वहीं कांग्रेस सरकार के पास इस मुद्दे को लेकर मौका भी था और 18 फरवरी 1980 को उत्तर प्रदेश सहित 9 गैर कांग्रेस शासित राज्‍यों की सरकारें बर्खास्‍त कर दी गईं। देखा जाए तो अब की राजनीति तब से काफी बदल गई है। 1980 में नेता अपनी जाति और पार्टी से जुड़े होने के बावजूद पीड़‍ितों के साथ खड़े थे। वहीं 2023 में सत्तारूढ़ भाजपा के विधायक सिर्फ अपनी जाति के पीड़‍ितों से मिल रहे थे। यह आज की राजनीति के लिए एक विडंबना भी है, जब इंसानियत से ऊपर जाति हो गई है।    
 

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