विपक्ष की गोलबंदी के आगे फेल हो गई मोदी की गारंटी : आखिर किन वजहों से 'सहारे' की कुर्सी पर बैठने को मजबूर हुई भाजपा?

आखिर किन वजहों से 'सहारे' की कुर्सी पर बैठने को मजबूर हुई भाजपा?
UPT | विपक्ष की गोलबंदी के आगे फेल हो गई मोदी की गारंटी

Jun 05, 2024 21:31

भाजपा ने 18वीं लोकसभा में केवल 240 सीटें हासिल की हैं। पिछले एक दशक में ये पहली बार है कि भाजपा बहुमत के आंकड़े को छू भी नहीं पाई है। 2014 में भाजपा को 282 सीटें और 2019 में अकेले दम पर 303 सीटें मिली थीं।

Jun 05, 2024 21:31

Short Highlights
  • उत्तर के मुकाबले दक्षिण पर ज्यादा फोकस
  • एंटी इनकम्बेंसी काफी बड़ी वजह
  • बेरोजगारी भी साबित हुआ बड़ा मुद्दा
New Delhi : 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजों का एलान हो चुका है। इससे सबसे बड़ा झटका भारतीय जनता पार्टी को लगा है। भाजपा ने 18वीं लोकसभा में केवल 240 सीटें हासिल की हैं। पिछले एक दशक में ये पहली बार है कि भाजपा बहुमत के आंकड़े को छू भी नहीं पाई है। 2014 में भाजपा को 282 सीटें और 2019 में अकेले दम पर 303 सीटें मिली थीं। नरेंद्र मोदी के सियासी करियर में यह पहली बार हुआ है कि वह अपने नेतृत्व में भाजपा को बहुमत नहीं दिला पाए हैं। वहीं कांग्रेस को 99 सीटें हासिल हुई हैं। इसके अलावा समाजवादी पार्टी को 37, तृणमूल कांग्रेस को 29, तेलगु देशम पार्टी को 16, जनता दल यूनाइटेड तो 12 सीटें मिली है। बहुजन समाज पार्टी 2014 की ही तरह एक भी सीट नहीं जीत पाई है। आज समझने की कोशिश करेंगे कि आखिर 365 दिन तक चुनावी मोड में रहने वाली भाजपा बहुमत तक पहुंचने से कैसे चूक गई और क्या बैसाखी के सहारे नरेंद्र मोदी पूरे 5 साल सरकार चला पाएंगे।

उत्तर के मुकाबले दक्षिण पर ज्यादा फोकस
एक बच्चा घर से खूब तैयारी करके इम्तिहान देने जाता है, लेकिन रिजल्ट आने पर उसे पता चलता है कि असल में उसकी तैयारी अधूरी ही थी। लगभग यही हाल भाजपा का भी है। भाजपा ने चुनाव की तैयारी तो पूरी की थी, जीतने के लिए एड़ी-चोटी का जोर भी लगा दिया था, लेकिन बावजूद इसके नतीजे उसके पक्ष में नहीं रहे। इसके पीछे जो कई कारण हैं, उसमें से एक उत्तर भारत के मुकाबले दक्षिण भारत पर ज्यादा फोकस करना भी है। नरेंद्र मोदी ने चुनाव के दौरान 61 दिनों में करीब 22 रैलियां और रोड शो केवल दक्षिण भारत में किए। राजनाथ सिंह, शिवराज चौहान, जेपी नड्डा और अमित शाह की भी दक्षिण में रैलियां हुईं। नए संसद भवन में नरेंद्र मोदी ने सेंगोल को स्थापित किया। काशी-तमिल संगमम शुरू किया, लेकिन इन सबका कोई खास फायदा उसे नहीं मिला। उल्टे, हिंदी पट्टी के राज्यों में भाजपा औंधे मुंह गिर गई। 2019 के मुकाबले भाजपा दक्षिण में महज एक सीट अधिक जीत पाई।

दक्षिण की विचारधारा में जगह नहीं
दक्षिण भारत में लोकसभा की 132 सीटें हैं। भाजपा ने पहली बार यहां 90 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। भाजपा ने इसके लिए कई पार्टियों के गठबंधन भी किया था। लेकिन जहां एक ओर आंध्र प्रदेश में इसका फायदा हुआ, तो वहीं कर्नाटक में भाजपा को नुकसान भी उठाना पड़ा। एक वजह और है कि दक्षिण की ज्यादातर पार्टियां सेंटर या वामपंथी विचारधारा को मानने वाली हैं। ऐसे में दक्षिणपंथी भाजपा के लिए वहां जगह बनाना बेहद मुश्किल है। भाजपा ने 2024 में दक्षिण भारत में 10 नई सीटें जीती हैं, तो 9 मौजूदा सीटों का उसे नुकसान भी हुआ है। इसका मतलब ये हुआ है कि दक्षिण में इतनी जद्दोजहद के बावजूद भाजपा को केवल 1 सीट का फायदा हुआ है। उधर उत्तर भारत में पार्टी को 53 सीटों का नुकसान हुआ है।

बेरोजगारी भी साबित हुआ बड़ा मुद्दा
विपक्ष नरेंद्र मोदी सरकार को जिस मुद्दे पर सबसे ज्यादा घेरता है, वह बेरोजगारी ही है। 2014 के चुनाव से पहले जारी घोषणापत्र में भाजपा ने हर साल 2 करोड़ रोजगार पैदा करने का वादा किया था। इसके बचाव में भाजपा भले ही यह कहती रही हो कि रोजगार का मतलब सरकारी नौकरी ही नहीं होता, लेकिन विपक्ष में इसे मुद्दा बनाकर खूब भुनाया है। उधर अग्निवीर योजना के समर्थन में भाजपा ने चाहें जितनी भी दलील दी हो, लेकिन वे युवाओं को संतुष्ट नहीं कर सके। उत्तर प्रदेश में एक के बाद एक हुए पेपर लीक ने भी सरकार की नींद उड़ा दी। डैमेज कंट्रोल के नाम पर सरकार ने धड़ाधड़ गिरफ्तारियां कर कड़ा संदेश देने की कोशिश की, लेकिन जिनका भविष्य इससे अधर में लटका, उन्होंने भी वोट के बदले जवाब दिया। उत्तर प्रदेश और खासकर पूर्वांचल में अखिलेश यादव की रैली में युवा जमकर जुटे। विपक्ष के इंडिया ब्लॉक ने 35 लाख सरकारी पद भरने, बेरोजगारी भत्ता देने और अग्निवीर योजना को रद्द करने जैसे कई लुभावनी वादे किए। इसका भी परिणाम नतीजों में देखने को मिला। यूपी में भाजपा केवल 33 सीटें ही जीत पाई और 37 सीटें पाकर समाजवादी पार्टी ने लोकसभा चुनाव में अपने इतिहास की सबसे बड़ी जीत दर्ज की।

सांसद चमत्कार की उम्मीद करते रहे
2014 में नरेंद्र मोदी भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार थे। उन्होंने लोगों से कहा कि वोट सांसद को नहीं, सीधा मुझे जाएगा। मोदी लहर पर देश सवार हो गया और भाजपा ने यूपी में अकेले 71 सीटें जीतीं। यही सिलसिला 2019 में भी कायम रहा। हालांकि तब सपा और बसपा के गठबंधन के कारण भाजपा को कुछ सीटों का नुकसान उठाना पड़ा और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पार्टी ने 62 सीटें हासिल कीं। दोनों चुनावों में भाजपा के ज्यादातर प्रत्याशी नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव जीत गए। 2017 में यूपी में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने का फायदा भी 2019 में पार्टी को मिला। लेकिन इस कारण प्रदेश में भाजपा के कई सांसद चुनाव जीतने के बाद अपने क्षेत्र में नहीं दिखे। एक सांसद के स्तर से जो भी काम लोकसभा क्षेत्र में हो सकते थे, उनका आधा भी नहीं हुआ। स्थानीय लोगों ने समय-समय पर अपनी नाराजगी जाहिर की, लेकिन सांसदों पर इसका कोई खास असर नहीं दिखा। उन्हें जैसे विश्वास था कि चुनाव में वोट मोदी और योगी के नाम पर तो मिल ही जाना है। कई बार मामले ऐसे भी सामने आए कि सांसदों ने खुलकर जनता के सामने कह दिया कि आप वोट मोदी-योगी को देते हैं, हमें नहीं। नतीजा आपके सामने है।

नहीं काम आया राम मंदिर वाला करिश्मा
अयोध्या में राम मंदिर बनना भाजपा के लिए किसी मेगा इवेंट से कम नहीं था। पार्टी नेताओं ने अपनी चुनावी रैलियों में भी इस मुद्दे को भुनाने की बहुत कोशिश की। एक नारा दिया गया कि जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएंगे। मेरठ से राजेंद्र अग्रवाल का टिकट काटकर पर्दे के राम अरुण गोविल को दिया गया। लेकिन जनता को ये सब कुछ रास नहीं आया। मेरठ से 'राम' यानी अरुण गोविल तो जैसे-तैसे जीत गए, लेकिन रामनगरी ने खेला कर दिया। फैजाबाद की सीट से भाजपा प्रत्याशी लल्लू सिंह 54 हजार वोटों से चुनाव हार गए। लेकिन बड़ी ताज्जुब की बात थी कि जिस राम मंदिर के नाम पर भाजपा पूरे देश में वोट मांग रही थी, उस शहर ने ही भाजपा पर भरोसा नहीं जताया। योगी आदित्यनाथ अपनी रैलियों में लगातार कह रहे थे कि अयोध्या जाने पर अब त्रेता युग जैसा आभास होता है, लेकिन ये सारे बयान अयोध्या के वोटर को लुभा नहीं सके और पिछले दो बार के सांसद लल्लू सिंह हैट्रिक बनाने से चूक गए।

एंटी इनकम्बेंसी काफी बड़ी वजह
नरेंद्र मोदी बतौर प्रधानमंत्री अपना दो कार्यकाल पूरा कर चुके हैं। लंबे समय तक सरकार के सत्ता में रहने से एंटी इनकम्बेंसी पैदा हो ही जाती है। भाजपा में 2024 में एक बड़ा प्रयोग भी किया। 135 सीटिंग सांसदों के टिकट काट दिए गए। लेकिन ये रणनीति भी कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाई। भाजपा ने 543 सीटों में से 441 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ा। विपक्ष एकजुट हुआ और 466 सीटों पर इंडिया ब्लॉक के कैंडिडेट उतरे। विपक्षी एकजुटता का फायदा वोट प्रतिशत बढ़ने में तब्दील हुआ और भाजपा को इसका खासा नुकसान उठाना पड़ा। उत्तर भारत की करीब 183 सीटों में से 82 सांसदों के टिकट काटे गए। पार्टीने उनकी जगह नए चेहरों को मौका दिया। लेकिन वोटर साधने में कामयाब नहीं हुए। वहीं पश्चिम उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में किसान एमएसपी और कृषि बिल संबंधी मुद्दों को लेकर भाजपा के खिलाफ आक्रोशित थे। भाजपा ने इसका हल रालोद को साथ लेकर निकालने की कोशिश की, लेकिन ये तरकीब खास जमी नहीं। खीरी में केंद्रीय मंत्री अजय मिश्र टेनी के बेटे पर केस चलने के बावजूद टेनी को पद से नहीं हटाना और बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ यौन उत्पीड़न का आरोप लगने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं होना, भाजपा पर भारी पड़ा।

बंगाल में फेल, महाराष्ट्र में खेल
पश्चिम बंगाल में 2019 में भाजपा ने 18 सीटें जीती थीं। ये जीत उस समय ममता बनर्जी के खिलाफ काफी बड़ी मानी जा रही थी। लेकिन 2024 में भाजपा ममता की लोकप्रियता के आगे पस्त हो गई। टीएमसी का मुख्य वोट बैंक मुस्लिम वोटर हैं, जो करीब 30 फीसदी हैं। इसका फायदा ममता को मिला। संदेशखाली और भ्रष्टाचार के मु्द्दे भाजपा सही से भुना नहीं पाई और 12 सीटों पर सिमट गई, जबकि टीएमसी को 29 सीटें मिलीं। गुजरात नरेंद्र मोदी और अमित शाह का गृह राज्य है। दोनों की पकड़ गुजरात में बेहद मजबूत है। लेकिन इसके बावजूद भाजपा गुजरात में 1 सीट हार गई। उधर महाराष्ट्र में खेला हो गया। जोड़-तोड़ की राजनीति के बावजूद भाजपा को इसका फायदा नहीं मिल पाया। महाराष्ट्र में कांग्रेस को 13 सीटें मिलीं, जबकि भाजपा केवल 9 सीटें पा सकी। उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने जहां 9 सीटें जीतीं, वहीं शिंदे गुट ने केवल 7। शरद पवार के नेतृत्व वाली एनसीपी ने जहां 8 सीटें जीतीं, तो अजित पवार के गुट ने मात्र 1 सीट। महाराष्ट्र में असली-नकली की लड़ाई के बीच भाजपा फंसकर रह गई और जनादेश नतीजों में दिखा।

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