Monday UPT Special : 2 साल बाद फिर आमने-सामने किसान और सरकार, आखिर एमएसपी पर क्यों नहीं बन पा रही सहमति?

2 साल बाद फिर आमने-सामने किसान और सरकार, आखिर एमएसपी पर क्यों नहीं बन पा रही सहमति?
UPT | 2 साल बाद फिर आमने-सामने किसान और सरकार

Feb 26, 2024 09:00

एमएसपी की मांग को लेकर देश का किसान एक बार फिर सड़कों पर है। केंद्र सरकार से कई दौर की वार्ता हो चुकी है, लेकिन कोई हल नहीं निकल पाया है। आंसू गैसे के गोले के बीच किसान सड़कों पर डटा है और सरकार उसे दिल्ली न पहुंचने देने की हर संभव कोशिश कर रही है।

Feb 26, 2024 09:00

Short Highlights
  • एमएसपी पर गारंटी कानून की मांग पर अड़े किसान
  • स्वामीनाथन आयोग ने 2006 में की थी सिफारिश
  • सरकार से कई दौर की बातचीत में नहीं निकला है हल
New Delhi : आज से ठीक 2 साल 3 महीने और 7 दिन पीछे की तारीख याद कीजिए.... तकरीबन एक साल से दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसान तब वापस अपने घरों की ओर लौट गए थे, जब केंद्र सरकार ने तीन कृषि कानूनों को वापस लेने का एलान कर दिया था। तब शायद उन्हें आस रही होगी कि उनकी मांगें मान लेने वाली केंद्र सरकार उनके लिए कुछ बेहतर जरूर करेगी। लेकिन कैलेंडर में तारीख बदल गई, पर हालात जस के तस। एक बार फिर से किसान अपनी मांगों को लेकर सड़क पर हैं और सरकार उन्हें दिल्ली जाने से रोकने के लिए पहले से भी बेहतर तैयार।

हम सबने स्कूलों में पढ़ा है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। आजादी के समय हमारे लगभग 70 प्रतिशत लोग किसान थे। समय के साथ यह आंकड़ा जरूर बदला, लेकिन आज भी यही लोग देश के रीढ़ की हड्डी हैं। लेकिन अपनी रीढ़ की हड्डी का ख्याल क्या ख्याल क्या यह देश रख पा रहा है? किसान अपनी जान से भी ज्यादा प्यारे खेत को छोड़कर सड़कों पर प्रदर्शन करने को मजबूर हैं। जय जवान-जय किसान का नारा देने वाले देश में किसानों के ऊपर आंसू गैस के गोले छोड़े जा रहे हैं। सड़कों पर कीलें गाड़ दी गई हैं ताकि किसानों के ट्रैक्टर सीमा पार न कर पाएं। लेकिन इन सबकी शुरुआत कहां से हुई, ये जानने के लिए थोड़ा अतीत के पन्ने खंगालने पड़ेंगे।

जब 2004 में बना था स्वामीनाथन आयोग
2004 में तत्कालीन मनमोहन सिंह की सरकार ने राष्ट्रीय किसान आयोग बनाया था, जिसका उद्देश्य किसानों से जुड़ी समस्याओं का पता लगाकर उनका हल निकालना था। इस आयोग के अध्यक्ष थे कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन, जिस कारण इसे आज भी स्वामीनाथन आयोग कहा जाता है। दिसंबर 2004 से लेकर अक्टूबर 2006 के बीच एमएस स्वामीनाथन के अध्यक्षता वाले आयोग ने 5 रिपोर्ट तैयारी की। इसमें से एक रिपोर्ट न्यूनतम समर्थन मूल्य यानि एमएसपी को लेकर भी थी।

सबसे पहले एमएसपी के बारे में जानिए
एमएसपी का मतलब है- मिनिमम सपोर्ट प्राइस (न्यूनतम समर्थन मूल्य)। इसके जरिए सरकार किसी फसल की न्यूनतम कीमत तय करती है। इसका मतलब ये हुआ कि अगर बाजार में किसी फसल के दाम कम भी हो जाएं, तो भी किसान की फसल सरकार तय की गई एमएसपी पर खरीद लेती है। मसलन अगर किसी फसल की एमएसपी 1000 रुपये है और मान लीजिए कि वह बाजार में 600-700 रुपये बिक रही है, तो भी सरकार वह फसल 1000 रुपये में ही खरीदेगी।
 
एमएसपी पर स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट में क्या था?
स्वामीनाथन आयोग ने अपनी रिपोर्ट ने यह बताया था कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य फसल की लागत से 50 प्रतिशत के आधार पर दिया जाए। जैसे उदाहरण के लिए अगर किसी फसल की लागत 100 रुपये है, तो इसमें 50 प्रतिशत यानि 50 रुपये जोड़कर कुल कुल 150 रुपये बतौर एमएसपी दे दिया जाए। आयोग की रिपोर्ट के आधार पर ही तत्कालीन मनमोहन सरकार राष्ट्रीय किसान नीति लाई, जिसके जरिए किसानों की आय बढ़ाने का दावा किया गया। लेकिन स्वामीनाथन आयोग कि सिफारिशें लागू करने की कोई बात नहीं हुई।

तीन तरह से तय होती है किसान की लागत
किसी भी फसल के लिए किसान की लागत तीन तरह के फॉर्मूले से तय की जाती है। पहला है A2 फॉर्मूला। इसमें सभी तरह के डायरेक्ट खर्च को शामिल किया जाता है, जैसे बीज, खाद, कीटनाशक, लेबर, सिंचाई, ईंधन इत्यादि। लेकिन इस फॉर्मूले में अनपेड लेबर खर्च शामिल नहीं होता, मसलन खेत में किसान के घर के लोगों का काम, जिसके लिए कोई भुगतान नहीं होता। अगर इस अनपेड लेबर को भी जोड़ दिया जाए, तो जो फॉर्मूला तैयार होता है, वह A2+FL कहलाता है। इसके बाद तीसरा फॉर्मूला C2+50% आता है, जिसकी सिफारिश स्वामीनाथन कमीशन ने की थी। कई किसानों के पास खुद की जमीन होती है। जबकि कई किसान किराए पर खेत लेकर फसल उगाते हैं। इस फॉर्मूले में खेत, कुंए आदि के किराए को भी जोड़ा जाता है।
 
अपने-अपने हिसाब से एमएसपी देती रहीं सरकारें
अलग-अलग सरकारों के कार्यकाल के दौरान विपक्ष में बैठी पार्टियों ने भले ही एमएसपी को लेकर भले ही चाहें जो भी दावे किए हों, लेकिन ये कटु सत्य है कि सत्ता में आने के बाद एमएसपी पर सबके सुर एक जैसे हो जाते हैं। सरकारें हर बार अपने-अपने अनुसार एमएसपी देती आई हैं। एक सच्चाई ये भी है कि एमएसपी बस सरकार की नीति है, कोई कानून नहीं। इसलिए सरकार हर बार इसे अपने अनुसार घटाती-बढ़ाती रहती हैं। 2018 में केंद्र सरकार ने A2+FL के अनुसार ही एमएसपी तय किया है। पिछले साल भी आर्थिक मामलों की कैबिनेट कमेटी ने A2+FL फॉर्मूले को ही उत्पादन की कॉस्ट माना।

किसानों की सरकार से क्या मांग?
कुल मिलाकर अब तक किसी भी सरकार में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को नहीं माना गया। लेकिन हर बार एमएसपी बढ़ाने की मांग कर रहे किसान अब एमएसपी की गारंटी वाला कानून मांग रहे हैं। किसान चाहते हैं कि सरकार एमएसपी से कम कीमत पर फसल की खरीद को अपराध घोषित करे। साथ ही दूसरी फसलों को भी एमएसपी के दायरे में लाया जाए। दरअसल समस्या ये है कि कई बार किसानों को एमएसपी से कम कीमत पर भी अपनी फसल बेचनी पड़ती है। इस संबंध में कोई कानून न होने के चलते यह बात अदालत में भी नहीं ले जाई जा सकती। साथ ही एमएसपी पर सरकार कभी भी कोई फैसला कर सकती है, किसी फसल की एमएसपी खत्म भी कर सकती है, यह डर भी किसानों के एमएसपी की गारंटी वाले कानूनी मांग का एक आधार है।

फिलहाल किन फसलों पर मिलता है एमएसपी?
केंद्र सरकार फिलहाल 23 फसलों पर एमएसपी देती है। 1965 में केंद्र सरकार द्वारा बनया गया कमीशन फॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट एंड प्राइस ही देश में एमएसपी तय करता है। हालांकि यह सिर्फ एक विभाग है, कोई संस्था नहीं, जो कानूनी रूप से एमएसपी लागू कर सके। केंद्र सरकार फिलहाल जिन 23 फसलों पर एमएसपी देती है, उसमें 7 अनाज, 5 दाल, 7 ऑयलसीड और 4 अन्य फसलें हैं। इसमें धान, गेहूं, बाजरा, मक्का, ज्वार, रागी, जौ, चना, अरहर, मूंग, उड़द, मसूर, सोयाबीन, सरसों, सूरजमुखी, मूंगफली, काला तिल, गन्ना, कपास, जूट और नारियल शामिल है। यहां एक बार और जाननें वाली है कि अगस्त 2014 में बनी शांता कुमार कमेटी के मुताबिक मात्र 6 फीसदी किसानों को ही एमएसपी का लाभ मिल पाता है।

एमएसपी का कानून बनाने में सरकार को क्या समस्या है?
दरअसल ये जो 23 फसलें एमएसपी की लिस्ट में शामिल हैं, वह भारतीय कृषि उत्पाद का केवल एक तिहाई ही हैं। एक धारणा ये भी है कि सरकार को सारी फसलें नहीं खरीदनी पड़तीं। इसलिए माना जाता है कि अगर सरकार किसी फसल का एक हिस्सा खरीद भी ले, तो बाजार में अपने आप फसलों की कीमत ऊपर आ जाती है। लेकिन ये पूरा सच नहीं है। दरअसल किसानों की मांग के मुताबिक अगर सरकार एमएसपी पर कानून बना देती है, तो उस पर सभी 23 फसलों को खरीदने की कानूनी बाध्यता आ जाएगी। अब अगर सरकार इन सभी फसलों को खरीद भी लेगी, तो सरकारी खजाने पर अतिरिक्त वित्तीय बोझ पड़ेगा। इसकी भरपाई के लिए सरकार को दूसरे मदों के खर्च में कटौती करनी पड़ेगी, जैसे- रक्षा बजट, इंफ्रास्ट्रक्चर का बजट या फिर हो सकता है कि सरकार को भरपाई के लिए टैक्स बढ़ाना पड़े, जिसका वापस से असर आम नागरिकों पर ही पड़ेगा।

क्या मानते हैं कृषि के जानकार?
हालांकि कृषि के कुछ जानकार इस मत से सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक एमएसपी लागू करने पर सरकारी खजाने पर बोझ के आरोप बेबुनियाद हैं। एमएसपी लागू होने पर देश की जीडीपी डबल डिजिट में दौड़ने लगेगी, क्योंकि किसानों के पास आया पैसा खर्च भी होगा। ये पैसा मार्केट में जाने पर इकॉनमी बढ़ेगी। लेकिन हर बार की तरह इस मत के पक्ष-विपक्ष में भी कई आवाजें हैं।

एमएसपी के अलावा सरकार के पास और क्या रास्ते?
दरअसल एमएसपी एक तरह की फेयर एवरेज क्वालिटी के लिए होती है। मसलन जैसी फसल, वैसा एमएसपी। लेकिन किसी फसल की गुणवत्ता मानक अनुरुप है या नहीं, ये तय करने का कोई पैमाना नहीं है। इसलिए एमएसपी खरीद पर अगर कानून बना भी दिया जाए, तो इसका पालन करने में बेहद कठिनाई आएगी। ऐसे में दूसरा तरीका ये हो सकता है कि सरकार निजी कंपनियों पर एमएसपी पर खरीद के लिए दबाव बना सकती है, जैसा गन्ना खरीद के लिए किया जाता है। इसके अलावा एक रास्ता यह भी हो सकता है कि सरकार फसल की बाजार में कीमत और किसानों की लागत का घाटा उन्हें सीधे दे दे। इससे न तो प्राइवेट कंपनियों पर दबाव पड़ेगा, और न ही सरकार को अतिरिक्त फसल खरीदनी पड़ेगी। वैसे भी सरकार किसान सम्मान निधि जैसी योजनाएं चला ही रही है।

अचानक कैसे शुरू हुआ किसानों का आंदोलन?
अतीत की हकीकत और वास्तविक स्थिति का आंकलन करने के बाद अब जरूरी है कि यह समझा जाए कि देश में अचानक किसानों का आंदोलन कैसे शुरू हो गया और अचानक से किसानों ने एमएसपी पर गारंटी कानून की मांग करनी क्यों शुरू कर दी। दरअसल इन सबकी शुरुआत हुई कोरोनावायरस की दूसरी लहर के दौरान, जब केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों के विरोध में किसान सड़कों पर आ गए। सरकार भले ही इन कानूनों को कृषि सुधार में बड़ा कदम बता रही थी, लेकिन एक वर्ग लगातार इसे कॉर्पोरेट को फायदा पहुंचाने वाला कदम बता रहा था। ऐसे में पहले तो किसानों ने इन कानूनों को वापस लेने के लिए प्रदर्शन किया, लेकिन फिर यह मांग एमएसपी पर गारंटी कानून तक पहुंच गई।

कमेटी ने आज तक नहीं दी एमएसपी पर रिपोर्ट
केंद्र सरकार ने नवबंर 2021 में न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए एक कमेटी का गठन किया था। इसी आश्वासन के बाद किसान वापस लौटे थे। लेकिन इतना समय बीत जाने के बाद भी अब तक कोई रिपोर्ट नहीं आ पाई है। यही वजह है कि एक बार फिर किसान सड़कों पर हैं। किसानों का कहना है कि सरकार भले ही उनकी सारी फसल न खरीदे, लेकिन एमएसपी का कानून बन जाने से कम से कम प्राइवेट कंपनियां तो उनकी लागत से नीचे फसल नहीं खरीद पाएंगी।

सरकार की क्या कोशिश?
दरअसल एमएसपी और कई दूसरी वजहों से कुछ क्षेत्रों के किसान बरसों के एक ही फसल की खेती कर रहे हैं। इससे स्थिति कुछ ऐसी हो गई है कि देश में कुछ फसलों का आवश्यकता से अधिक उत्पादन हो रहा है, जबकि कई फसलें इतनी कम मात्रा में हो रही हैं कि उनके आयात के कारण सरकारी खजाने पर बोझ भी पड़ रहा है। एक बात ये भी है कि पंजाब जैसी कुछ जगहों पर  ऐसे में सरकार की कोशिश है, देश में फसल चक्रीकरण किया जाए। इसी कोशिश में सरकार एमएसपी तो देना चाहती है, लेकिन तब, जब किसान केंद्र की मांग के मुताबिक फसलें उगाएं।

कांग्रेस कर रही गारंटी कानून बनाने का दावा
एक ओर एमएसपी की मांग को लेकर किसान सड़कों पर हैं, तो वहीं दूसरी ओर विपक्ष इसका पूरा राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश कर रहा है। कांग्रेस ने ये एलान कर दिया है कि अगर उनकी सरकार सत्ता में आती है, तो वह एमएसपी पर गारंटी का कानून बना देंगे। इतना ही नहीं, एमएसपी का आधार स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को बनाया जाएगा और सिर्फ 23 फसलों की खेती करने वाले ही नहीं, बल्कि हर किसान को इसका लाभ दिया जाएगा। लेकिन सवाल ये भी पूछा जा रहा है कि जब कांग्रेस इस तरह का वादा कर रही है, तो खुद के सत्ता में रहते हुए जब स्वामीनाथन आयोग ने एमएसपी का फॉर्मूला सुझाया था, तो उसे लागू क्यों नहीं किया।

अपराधी नहीं, वह किसान है!
देश का किसान, देश का अन्नदाता सड़कों पर है। वह संविधान के अंतर्गत मिले प्रदर्शन के अधिकार का इस्तेमाल दिल्ली आकर करना चाहता है। लेकिन सरकारें उसे बॉर्डर के आगे नहीं बढ़ने देना चाहतीं। राज्य के मुख्यमंत्री पूछ रहे हैं कि किसान दिल्ली जाने का मकसद स्पष्ट करें। लेकिन इतने सालों से धरने देकर, प्रदर्शन कर, अपनी मांग बताकर जो किसान दिन-रात, सर्दी-गर्मी-बरसात में सड़कों पर आ बैठ रहे हैं, वह मकसद बताने के लिए काफी नहीं? सड़कों पर कीलें गाड़ दी गई हैं, ताकि किसानों के ट्रैक्टर वहां से आगे न बढ़ पाएं। कंक्रीट की बैरिकेडिंग लगा दी गई है, ताकि किसान उसे तोड़ न पाएं। आंसू गैस के गोले छोड़े जा रहे हैं कि स्थिति काबू में रहे। लेकिन नहीं निकल रहा तो बस किसानों की समस्या का हल। शायद कोई ऐसा चमत्कार हो जाए कि सरकारों को ये समझ में आ जाए कि वह किसान हैं, अपराधी नहीं। शायद कोई ऐसा चमत्कार हो जाए कि ये गतिरोध हमेशा के लिए खत्म हो जाए। वो कहते हैं ना कि उम्मीद पर दुनिया कायम है...

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