1991 का समय भारत की आर्थिक यात्रा में सबसे कठिन समय था। 1985 तक देश को भुगतान संतुलन (Balance of Payments) की समस्या से जूझना पड़ रहा था। सरकार के बढ़ते खर्च और घटती आय के बीच असंतुलन बढ़ता गया।
मनमोहन सिंह ने कैसे इकोनॉमी में जान फूंकी : 1991 की मंदी में भारत के सामने थी बड़ी मुसीबत, ऐसे बने संकटमोचक
Dec 27, 2024 11:04
Dec 27, 2024 11:04
1991 का आर्थिक संकट
1991 का समय भारत की आर्थिक यात्रा में सबसे कठिन समय था। 1985 तक देश को भुगतान संतुलन (Balance of Payments) की समस्या से जूझना पड़ रहा था। सरकार के बढ़ते खर्च और घटती आय के बीच असंतुलन बढ़ता गया। 1990 के अंत तक भारत गहरे आर्थिक संकट में फंस चुका था।
- विदेशी ऋण संकट : भारत पर बढ़ते बाहरी ऋणों का दबाव इतना बढ़ गया कि सरकार उनके भुगतान में असमर्थ हो गई।
- विदेशी मुद्रा भंडार की गिरावट : विदेशी मुद्रा भंडार इस स्तर तक गिर गया था कि यह मात्र दो सप्ताह तक की आवश्यक वस्तुओं के आयात के लिए पर्याप्त था।
- मुद्रास्फीति की मार : पेट्रोलियम और अन्य जरूरी वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही थीं, जिससे आम जनता पर बड़ा बोझ पड़ रहा था।
डॉ. मनमोहन सिंह का ऐतिहासिक भाषण
24 जुलाई, 1991 को डॉ. मनमोहन सिंह ने संसद में अपने बजट भाषण के दौरान यह स्पष्ट कर दिया कि भारत के पास आर्थिक सुधारों को अपनाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। उन्होंने कहा "समय बर्बाद करने का कोई मौका नहीं है। न तो सरकार और न ही अर्थव्यवस्था साल दर साल अपनी क्षमता से ज्यादा खर्च कर सकती है। हमें बाजार की ताकतों को चलाने के लिए और अधिक जगह देनी होगी।"
मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाने पर उठे थे सवाल
1991 का वर्ष भारत के लिए एक ऐतिहासिक मोड़ लाने वाला रहा। खासकर जब पीवी नरसिम्हा राव ने डॉ. मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री की जिम्मेदारी सौंपी। उन दिनों की वित्तीय स्थिति और आर्थिक संकट को देखते हुए, यह निर्णय कई सवालों के घेरे में आ गया था। डॉ. मनमोहन सिंह को वित्त मंत्रालय सौंपने पर लोगों ने आशंका व्यक्त की कि क्या एक केंद्रीय बैंक के पूर्व प्रमुख को इस महत्वपूर्ण पद पर लाना सही होगा। उस समय तक वित्त मंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले अधिकांश लोग राजनीतिक पृष्ठभूमि से आते थे। जिनमें कांग्रेस के खांटी नेता शामिल थे। कई विश्लेषकों ने डॉ. मनमोहन सिंह की योग्यता पर सवाल उठाते हुए कहा कि क्या वे देश की जटिल आर्थिक समस्याओं का समाधान कर पाएंगे। फिर भी, यह माना गया कि उनके पास उत्कृष्ट तकनीकी ज्ञान और अंतरराष्ट्रीय मानकों के साथ तालमेल बनाने की क्षमता है। जो उस समय भारत को अपनी आर्थिक नीतियों में सुधार लाने के लिए अत्यंत आवश्यक थी।
नई आर्थिक नीति का श्रेय : नरसिम्हा राव या मनमोहन सिंह?
1991 में लागू की गई नई आर्थिक नीति ने भारत के आर्थिक परिदृश्य को बदलकर रख दिया। जब उदारीकरण की प्रक्रिया ने धीरे-धीरे अपना असर दिखाना शुरू किया, तब यह प्रश्न उठने लगा कि इस ऐतिहासिक बदलाव का श्रेय आखिर किसे दिया जाना चाहिए - पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव को या फिर डॉ. मनमोहन सिंह को? इस विषय पर चर्चा करते हुए डॉ. मनमोहन सिंह के प्रेस सलाहकार संजय बारू ने 2015 में एक बैठक में एक दिलचस्प सवाल उठाया। उन्होंने लोगों से पूछा कि उनके लिए 1991 का मतलब क्या है। अधिकांश लोगों ने बिना हिचकिचाते जवाब दिया कि यह वर्ष उस समय का है जब भारत ने नई आर्थिक नीति को लागू किया और आर्थिक सुधारों का रास्ता खोला। इसके बाद संजय बारू ने यह प्रश्न किया कि इस परिवर्तन के लिए कौन जिम्मेदार है? लोगों ने तुरंत और स्पष्ट रूप से डॉ. मनमोहन सिंह का नाम लिया। यह संकेत देता है कि आम लोगों के मन में डॉ. मनमोहन सिंह के प्रति एक गहरा सम्मान और उनका योगदान मूलतः एक विशेषज्ञ और आर्थिक सुधारक के रूप में पहचानने की प्रवृत्ति थी।
मनमोहन सिंह का पहला बजट भाषण
24 जुलाई 1991 का दिन भारतीय आर्थिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ जब डॉ. मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री के रूप में अपना पहला बजट भाषण दिया। उस दिन नेहरू जैकेट और आसमानी पगड़ी पहने वह संसद में खड़े हुए तो देश की निगाहें उन पर टिकी हुई थीं। यह केवल एक वित्तीय दस्तावेज नहीं था, बल्कि यह एक नया दृष्टिकोण, नई दिशा और भारत की आर्थिक नीतियों में एक बड़ा बदलाव लाने का प्रतीक था। मनमोहन सिंह के इस भाषण में एक महत्वपूर्ण पहलू यह था कि उन्होंने पूर्व सरकार की नीतियों को बार-बार संबोधित किया। वह उन नीतियों को स्पष्ट रूप से खारिज कर रहे थे जो उस समय के भारतीय आर्थिक संकट का एक हिस्सा थीं। हालांकि, 1991 का बजट उनके करियर में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। यह केवल उनके द्वारा अंतिम रूप देने वाला बजट नहीं था बल्कि इसके अधिकांश हिस्से को उन्होंने अपने हाथों से ही लिखा था। इसके साथ ही यह ऐसा बजट था जिसे वह स्वयं संसद में पेश कर रहे थे और इसे अपनी खुद की नीतियों का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक अवसर के रूप में देखा जा रहा था।
घटाई उर्वरक सब्सिडी, बढ़ाए एलपीजी के दाम
डॉ. मनमोहन सिंह का 1991 का बजट भाषण भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। उनके इस 18,000 शब्दों के भाषण की सबसे विशेष बात यह थी कि उन्होंने बजटीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के 8.4 फीसदी से घटाकर 5.9 फीसदी करने का लक्ष्य रखा। यह एक साहसिक कदम था, जो सरकारी खर्चों में कटौती के लिए एक स्पष्ट संकेत था। बजटीय घाटे को करीब 2.5 फीसदी कम करने का अर्थ था कि सरकार को कई क्षेत्रों में खर्चों में कटौती करनी होगी। इस निर्णय का सबसे बड़ा प्रभाव कृषि और औद्योगिक क्षेत्र पर पड़ा। मनमोहन सिंह ने अपने बजट में उर्वरक पर दी जाने वाली सब्सिडी को 40 फीसदी घटाने का निर्णय लिया। यह कदम कृषि उत्पादकता को प्रभावित कर सकता था किन्तु यह दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता की दिशा में एक आवश्यक सुधार था। सिर्फ उर्वरक ही नहीं, बल्कि अन्य बुनियादी आवश्यकताओं जैसे चीनी और एलपीजी सिलेंडरों के दामों में भी बढ़ोतरी की गई। इसका अर्थ था कि आम नागरिकों को मंहगाई के बोझ का सामना करना पड़ सकता था लेकिन यह निर्णय एक नए आर्थिक मॉडल की ओर बढ़ने के लिए महत्वपूर्ण था। बजट भाषण के अंत में मनमोहन सिंह ने जो वाक्य कहा, वह सबके दिलों में गूंज गया: "दुनिया की कोई ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती, जिसका समय आ गया है।" उन्होंने भारत के एक बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में उदय का उल्लेख किया, जो देश की आकांक्षा और आत्मविश्वास का प्रतीक था। उन्होंने परिभाषित किया कि "पूरी दुनिया सुन ले कि भारत जाग चुका है।"
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