जगद्गुरु शङ्कराचार्य अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती ने अपने 22वें चातुर्मास्य व्रत अनुष्ठान के अवसर पर नरसिंह सेवा सदन पीतमपुरा दिल्ली में सायंकालीन प्रवचन में कहा कि 'सुख चाहते हो तो सत्वगुण का संवर्द्धन करो'
दिल्ली में शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद : 'सुख चाहते हो तो सत्वगुण का संवर्द्धन करो'
Jul 24, 2024 15:07
Jul 24, 2024 15:07
'धर्मी से भी धर्म को नहीं होता पृथक'
उन्होंने कहा, "तीन गुण हैं - सत्व, रज और तम। सत्वगुण जब बढ़ता है तो व्यक्ति शान्त और सुस्थिर रहता है। रजोगुण बढ़ता है तो व्यक्ति कर्म में प्रवृत्त होता है और तमोगुण बढता है तो व्यक्ति आलस्य और प्रमाद करने लगता है। संसार में लोगों के कार्यों को देखते हुए हम व्यक्तियों में इन गुणों की न्यूनता या अधिकता का अनुमान लगा सकते हैं।" आगे धर्म की व्याख्या करते हुए शंकराचार्य जी ने कहा कि धर्म स्वाभाव है। यह धर्म धर्मी में निहित रहता है। जिस प्रकार आग से उसकी दाहकता अलग नहीं की जा सकती, वैसे ही धर्मी से भी धर्म को पृथक नहीं किया जा सकता है।
'शास्त्रों में धर्म को न छोडने की शिक्षा'
शङ्कराचार्य जी ने धर्म का तात्पर्य बताते हुए कहा कि अपने धर्मशास्त्रों में किसी भी दशा में अथवा किसी के भी लिए धर्म को न छोडने की शिक्षा दी गयी है। परधर्म को भयावह कहा गया है। यहां परधर्म का अर्थ आज के अनुसार दूसरे का (मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि) नहीं हैं। यहां परधर्म से तात्पर्य वर्णाश्रम धर्म से है। इसका अर्थ यह है कि जो जिस वर्ण और आश्रम में स्थित है, उसे उसी धर्म के अनुसार जीवनयापन करना चाहिए। ब्राह्मण को क्षत्रिय आदि अन्य वर्णों के अनुसार आचरण नहीं करना चाहिए और इसी प्रकार अन्यों को भी दूसरे का आचरण नहीं करना है।
वैदिक मंगलाचरण से हुआ आरंभ
सायंकालीन प्रवचन का शुभारम्भ जगद्गुरुकुलम् के छात्रों द्वारा वैदिक मंगलाचरण से हुआ। शङ्कराचार्य जी की पादुकाओं का पूजन सुरेश सिंह और सुमन सिंह ने किया। मंच संचालन अरविन्द मिश्र ने किया और आरती से सत्संग सभा का समापन हुआ।
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