आधुनिकता के रंग में सराबोर लखनऊ का पतंगबाजी से इश्क बरकरार : देशभर में दिवाली जमघट सिर्फ यहां

UPT | जमघट पतंग की खरीदारी करते शौकीन

Nov 02, 2024 13:06

पतंगबाजी का शौक रखने वाली एक पीढ़ी पूरी तरह से बुढ़ापे की कतार में है तो दूसरी धीरे-धीरे उस ओर बढ़ रही है। बुढ़ापे वाली पीढ़ी तो अपने जमाने में पतंगबाजी के खूब मजे लिए। लेकिन, उनके बाद वाली वह पीढ़ी है, जिसकी बचपन में पतंग लूटते समय कई बार टांग टूटी और चोटें मिली। दिवाली के बाद जमघट पर पतंग लूटने के लिये ये पीढ़ी सड़क चौराहे के ट्रैफिक तक की परवाह नहीं करती थी।

Short Highlights
  • नवाबों से लेकर तवायफों को रहा पतंगबाजी का शौक, आम और खास दोनों की रही पसंद
  • पतंगबाजी के शौकीनों ने अब तक रवायत को जिंदा रखा
Lucknow News : दिवाली के बाद लखनऊ का आसमान अब पतंगों से पट गया है। शहर के लोगों को जहां दिवाली का बेहद इंतजार रहता है, वहीं इसके बाद होने वाले जमघट के दीवानों की भी कमी नहीं है। पतंगबाजी का शौक रखने वाले इसका बेसब्री से इंतजार करते हैं। शहर में जमघट के मौके पर पतंग की दुकानों पर रौनक बढ़ गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सीएम योगी आदित्यनाथ वाली पतंगों की खूब मांग की जा रही है। इसके अलावा जमघट पर पतंगों के जरिए पर्यावरण को सुरक्षित बनाने का भी संदेश दिया जा रहा है।

चौक में पतंगबाजी की प्रतियोगिता
राजधानी में जमघट पर पतंग प्रतियोगिताओं का भी आयोजन किया जा रहा है। पुराने लखनऊ में इसका अलग ही जोश देखने को मिल रहा है। उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक और राज्य सभा सांसद दिनेश पाठक ने शनिवार को चौक में पतंग प्रतियोगिता और सम्मान समारोह में शिरकत की। उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक ने कहा कि दिवाली के बाद जमघट के दिन परंपरागत रूप से लखनऊ में पतंगबाजी प्रतियोगिता का आयोजन किया गया, जिसमें बड़ी संख्या में पतंगप्रेमी एकत्रित हुए। विजेताओं को हमने पुरस्कार वितरण भी किए हैं। परंपराएं जारी रहनी चाहिए। सब लोग एकजुट होकर इस त्यौहार को मना रहे हैं। एक वक्त था जब जमघट के मौके पर शहर के आसमान पर हर तरफ पतंगों का राज होता था। पतंग उड़ाने वालों से लेकर कटने पर उसे लूटने के लिए बच्चे और युवा गली मोहल्लों में दौड़ पड़ते थे। हाथों में मोबाइल पहुंचते ही ये दौर लुप्त होता चला गया। हालांकि इस शहर में फिर भी जमघट के मौके पर पतंगबाजी के शौकीन इस रवायत को पूरा करते नजर आते हैं। 



पतंग लूटने के लिए चोट की भी परवाह नहीं
पतंगबाजी का शौक रखने वाली एक पीढ़ी पूरी तरह से बुढ़ापे की कतार में है तो दूसरी धीरे-धीरे उस ओर बढ़ रही है। बुढ़ापे वाली पीढ़ी तो अपने जमाने में पतंगबाजी के खूब मजे लिए। लेकिन, उनके बाद वाली वह पीढ़ी है, जिसकी बचपन में पतंग लूटते समय कई बार टांग टूटी और चोटें मिली। दिवाली के बाद जमघट पर पतंग लूटने के लिये ये पीढ़ी सड़क चौराहे के ट्रैफिक तक की परवाह नहीं करती थी। लूटी हुई पतंग को पीठ पर टांगकर तब इस तरह बच्चे और युवा इतराते थे, मानों लखनऊ के नवाब का ताज मिल गया हो। आज के बच्चे और युवा इसे सुल्तान फिल्म के सलमान खान की उस खुशी से जोड़ सकते हैं, जो उसे पतंग लूटने के बाद मिलती थी। 

पतंगबाजी का इश्क से कनेक्शन
तब पढ़ाई छोड़कर पतंग उड़ाने पर कई बार डांट भी पड़ती थी। किताबें खुली छोड़कर चुपचाप पतंग उड़ाने और लूटने के लिए निकल पड़ने वालों की कमी नहीं। उस दौर में गुलाबी जाड़े की शुरुआत अक्टूबर से हो जाती थी। ऐसे में घर के बड़े बुजुर्ग धूप सेंकने के लिए जरा इधर उधर क्या होते, बच्चे चुपचाप पतंगबाजी के लिए निकल पड़ते। एक हकीकत ये भी है कि इस पतंगबाजी के दौरान एक पीढ़ी का इश्क परवान चढ़ा। कई तो मोहल्ले वालों की छत पर चढ़ते ही इसलिए थे, कि पतंगबाजी के दौरान उन्हें अपने चांद का दीदार हो जाए।

ऐेसे चढ़ा अवध में पतंगबाजी का रंग, नवाबों के शौक के कारण मिली लोकप्रियता
कहा जाता है कि लखनऊ में नवाब आसफुद्दौला के समय में पतंग उड़ाना शुरू हुआ। नवाब इसके बेहद शौकीन थे और वह अपने शीशमहल की छत से पतंग उड़ाया करते थे। वहीं लोगों के बीच पतंगबाजी की शुरुआत 1800 से नवाब सआदत अली खां के दौर में शुरू हुई। इसके बाद पतंगबाजी की प्रतियोगिताओं ने जोर पकड़ा। कनकव्वे से नौ पेंच काटने वाले को नौशेखां की उपाधि से विभूषित किया जाता था। अवध के पांचवें नवाब बादशाह अमजद अली शाह दौर में मुर्शिदाबादी बांस मंगाकर पतंग में इस्तेमाल किया जाता था। बाद में पतंगबाजी की लोकप्रियता और परवान चढ़ती गई। कहा जाता है कि नवाब वाजिद अली शाह चौक में मछली वाली बारादरी की छत से पेंच लड़ाया करते थे। 

नवाब की पतंग कटकर छत पर गिरने पर होती थी दावतें, तवायफें भी रहीं शौकीन
नवाबी की पतंगें भी बेहद खास होती थीं। इनके उड़ाने में सोने और चांदी के तारों का भी इस्तेमाल होता था। कहा जाता है कि ये पतंगे जिसकी व्यक्ति छत पर कटकर गिरती थीं उसके घर उस दिन दावत होती थी। इतिहासकारों के मुताबिक लखनऊ में पतंगबाजी के शौक में यहां की तवायफें भी पीछे नहीं रहीं। नक्खास की जली खुर्शीद बहुत लंबे पेंच लड़ाती थीं। इस तरह ये शौक आम और खास में परवान चढ़ता रहा और पतंगबाजी पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों के बीच अपनी जगह बनाने में सफल हुई।

पतंगबाजी के महारथी एलफिंस्टन नवाब का किस्सा 
लखनऊ में जमघट और पतंगबाजी से जुड़े ​कई किस्से हैं। पुराने लखनऊ में तो एक पीढ़ी के जहन में इस खास पर्व और पतंगबाजी से जुड़ी अनगिनत कहानियां हैं। इन्हीं में से एक में 'एलफिंस्टन नवाब' का जिक्र आता है। कहते हैं कि एलफिंस्टन नवाब के पास पतंगबाजी के मैदान में था। जब वह पेंच लड़ाने उतरते, तो लखनऊ के सट्टेबाजों के बीच शर्तें लगतीं कि नवाब साहब कितनी पतंगें काटेंगे। नवाब साहब के पास खास चरखियां होती थीं और वह हमेशा परंपरागत पोशाक में सज-धज कर मैदान में आते थे। उनकी पतंगबाजी की अद्भुत कला और जीत का जश्न शहरभर में चर्चा का विषय बनता था।

दिवाली के बाद लखनऊ की खास परंपरा है जमघट
दरअसल जमघट अवध की खास पहचान है।  जैसे पंजाब में वसंत पंचमी और गुजरात में मकर संक्रांति पर पतंगबाजी का चलन है, वैसे ही अवध में जमघट की परंपरा है। यहां पतंगों के अलग-अलग आकार और नाम से पुकारा जाता है। इनमें कंकैया, कनकौवा, लट्ठेदार, चांद-तारा और सवा की तीन आदि है। यह विशेष परंपरा सिर्फ लखनऊ में ही देखने को मिलती है और भी चल रही है। 

कुड़ियाघाट पर जमघट का आकर्षण, लोग मेले का लेते थे आनंद
पुराने जमाने में जमघट का मुख्य आयोजन कुड़िया घाट पर होता था। लोग परिवार सहित घाट पर आते थे, बच्चे लकड़ी के झूलों पर झूलते और लोग जलेबी, खील-बताशे व चीनी के खिलौनों का आनंद लेते। पतंगबाजी के महारथी यहां इक्कों पर सजे-धजे आते और पेंचबाजी के जौहर दिखाते। हर साल यह मेला स्थानीय लोगों के लिए खास आकर्षण रहता और इस पर्व का हिस्सा बनने के लिए दूर-दूर से लोग पहुंचते थे। यहां पतंगों की लड़ाई नहीं बल्कि सामूहिक उत्सव का माहौल होता है, जो अवध की मिलनसार संस्कृति का प्रतीक है। जमघट का यह पर्व हर साल अवध की मिट्टी से जुड़ी परंपराओं और उसकी अनूठी संस्कृति को सजीव रखता है। शहर में नदवा मैदान, घंटाघर, गुलाला घाट, सतखंडा और गोमती नदी के किनारे पर जमघट के मौके पर लोग पतंगबाजी का आनंद लेते नजर आ रहे हैं।

जमघट और आजादी का संग्राम: साइमन कमीशन का विरोध
जमघट से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा भी है। कहा जाता है कि आजादी की लड़ाई के दौरान जमघट का उपयोग साइमन ​कमीशन के विरोध प्रदर्शन के लिए किया गया। कहते हैं कि जब कैसरबाग की बारादरी में साइमन कमीशन की बैठक हो रही थी, तो आसपास के इलाके में कटी पतंगों पर 'साइमन कमीशन वापस जाओ' लिखा हुआ था। इन पतंगों ने बारादरी के प्रांगण में गिरकर एक ऐतिहासिक विरोध प्रदर्शन का रूप ले लिया था। यह घटना अवध की साहसिक और सांस्कृतिक संपन्नता का प्रतीक बन गई।

अवध की सांस्कृतिक पहचान और आज के दौर की जरूरत
आज के समय में जहां डिजिटल मनोरंजन के साधन बढ़ गए हैं, वहीं जमघट जैसे पारंपरिक आयोजनों की महत्वता और बढ़ गई है। यह पर्व लोगों को एक साथ लाने और आनंद का अनुभव करने का माध्यम है। दिवाली के बाद आयोजित होने वाला लखनऊ का यह अनूठा पर्व न सिर्फ मनोरंजन बल्कि सांस्कृतिक धरोहर को भी सहेजता नजर आता है। जमघट के आयोजन का उद्देश्य केवल पतंग उड़ाना नहीं बल्कि हर वर्ग के लोगों को साथ लाना और सांस्कृतिक एकता का संदेश देना है। यहां पतंगों की लड़ाई नहीं बल्कि सामूहिक उत्सव का माहौल होता है, जो अवध की मिलनसार संस्कृति का प्रतीक है। जमघट का यह पर्व हर साल अवध की मिट्टी से जुड़ी परंपराओं और उसकी अनूठी संस्कृति को सजीव रखता है।

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