2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने 10 सीटों पर दर्ज की थी, लेकिन इस बार अकेले दम पर चुनाव लड़ना उसको काफी महंगा पड़ गया। इसके अलावा पार्टी का वोट प्रतिशत भी घटकर अब केवल 10 प्रतिशत तक रह गया है।
'शून्य' पर बसपा : वह पांच वजहें, जिसने मायावती के हाथ से सबकुछ छीन लिया, आइए बताते हैं
Jun 05, 2024 07:00
Jun 05, 2024 07:00
1. अकेले दम पर चुनाव लड़ने की गलती
लोकसभा चुनाव में जहां सभी पार्टियां एक-दूसरे से गठबंधन करके चुनाव करने की तैयारी कर रही थीं। वहीं दूसरी ओर बसपा प्रमुख मायावती ने अकेले दम पर चुनाव लड़ने का निर्णय लिया, जो उनके लिए भारी साबित हुआ। गरीब वंचित-शोषित समाज के मतदाताओं पर मोदी-योगी के प्रभाव और सपा-कांग्रेस गठबंधन ने बसपा प्रमुख को बड़ा झटका दिया है। 10 सांसदों वाली बहुजन समाज पार्टी से वंचितों के दूर जाने के साथ ही मुस्लिम समाज ने भी साथ छोड़ दिया। जिससे बसपा का इस बार खाता भी नहीं खुल पाया। बसपा इस बार यूपी में 79 सीटों पर चुनाव लड़ी, क्योंकि बरेली सीट पर पार्टी के प्रत्याशी का पर्चा खारिज हो गया था।
2. पिछड़ी जातियों ने छोड़ा माया का साथ
इस बार के चुनाव में मायावती का साथ दलितों के अलावा पिछड़ी जातियों ने छोड़ दिया। इस बार गैर जाटव के साथ ही गैर यादव पिछड़ी जातियों ने भी बसपा का पूरी तरह से साथ छोड़ दूसरे दलों का ही बटन दबाया। यही कारण रहा कि बसपा किसी भी लोकसभा सीट पर त्रिकोणीय लड़ाई में भी नहीं दिखाई दी।
3. डेढ़ दशक से फील्ड में सक्रिय न होना भी हार की वजह बना
पिछले डेढ़ दशक से बसपा प्रमुख मायावती के फील्ड में सक्रिय न दिखाई देने को भी बड़ा कारण माना जा रहा है। पार्टी के नेता इस बार गठबंधन में शामिल होने के पक्ष में थे, लेकिन मायावती उन्हें यही समझाती रहीं कि कांग्रेस या सपा से गठबंधन करने पर पार्टी को फायदे की बजाय नुकसान ही होता है। इस वजह से पार्टी के जनाधार वाले नेताओं के साथ ही दो सांसद सपा में व एक-एक भाजपा-कांग्रेस में चले गए। सिर्फ दो सांसद गिरीश चंद्र व श्याम सिंह यादव ही फिर बसपा से मैदान में उतरे। इसके अलावा अकेले चुनाव लड़ने से जीत का समीकरण न दिखाई देने पर बसपा को इस बार कई सीटों पर दमदार प्रत्याशी तक नहीं मिले। प्रदेश में 28 सभाओं सहित देश में 35 रैलियां करने वाली मायावती अपनी सभाओं में यही बताने की कोशिश करती रहीं कि मुफ्त राशन देकर भाजपा सरकार कोई उपकार नहीं कर रही है, लेकिन इसका असर भी बसपा के कोर वोट बैंक पर नहीं पड़ा।
दलित-मुस्लिम फार्मूले से जीत को लेकर इस बार बसपा प्रमुख इस कदर आश्वस्त थीं इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उन्होंने अन्य पार्टियों से कहीं अधिक 20 मुस्लिम प्रत्याशी उतारे थे। पिछले चुनाव में बसपा के 10 सांसदों में तीन मुस्लिम समाज के ही थे। सपा-कांग्रेस के नेताओं ने मायावती पर भाजपा को फायदा पहुंचाने के आरोप लगाए, उसका सीधा असर मुस्लिम समाज पर पड़ा और मुस्लिम मतदाताओं ने भाजपा को हराने के लिए बसपा के बजाय सपा-कांग्रेस गठबंधन की ओर रूख कर लिया। जिससे मायावती को काफी नुकसान हुआ।
4. विधानसभा चुनाव से नहीं लिया सबक
दो वर्ष पहले के विधानसभा चुनाव में भी मायावती के अकेले चुनाव लड़ने की रणनीति पूरी तरह से फेल साबित हुई थी और बसपा का बेहद खराब प्रदर्शन रहा था। जिस बसपा ने डेढ़ दशक पहले 2007 के विधानसभा चुनाव में बहुमत की सरकार बनाई थी, 2022 में उसका सिर्फ एक विधायक जीता था और जनाधार घटकर 12.83 प्रतिशत ही रह गया था, लेकिन मायावती ने इससे भी सबक नहीं लिया और संगठन में बार-बार फेरबदल करने के सिवाय ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे बसपा संगठन मजबूत होता।
5. आकाश आनंद की सभाओं पर रोक लगाने की गलती
मायावती के भतीजे आकाश आनंद इस बार चुनाव में बसपा के स्टार प्रचारकों में नंबर दो की हैसियत से थे। उन्होंने आक्रामक रूख अपना कर सभाएं की लेकिन बाद में मायावती ने उनकी सभाओं पर रोक लगा दी। कार्यकर्ताओं का उत्साह इससे भी कम हुआ। बसपा के नेशनल कोआर्डिटनेटर रहे आकाश आनंद ने शुरू में कई ताबड़तोड़ रैलियां कर पार्टी कार्यकर्ताओं में नई जान फूंक दी थी, लेकिन एक विवादित टिप्पणी पर आकाश आनंद के खिलाफ कार्रवाई होने के बाद मायावती ने कड़ा रूख अपनाते हुए उन्हें नेशनल कोआर्डिटनेटर के पद से हटा दिया और उनकी रैलियों पर रोक लगा दी, जो उनकी सबसे बड़ी गलती थी। क्योंकि आकाश आनंद ने ताबड़तोड़ रैलियां कर पार्टी में एक नई जान फूंक दी थी।
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