जामा मस्जिद के सर्वे को लेकर हुई हिंसा के चलते चर्चा में आए उत्तर प्रदेश के संभल जिले का इतिहास बेहद प्राचीन और समृद्ध है। वर्तमान में मुरादाबाद मंडल का हिस्सा यह जिला 28 सितंबर 2011 को भीमनगर...
चारों युगों का साक्षी रहा संभल : कभी पृथ्वीराज का पसंदीदा शहर तो कभी मराठाें की तबाही का बना सबूत, पढ़ें दिलचस्प खबर
Nov 26, 2024 16:39
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जानिए पौराणिक कथाओं से लेकर ऐतिहासिक प्रमाण तक
संभल के बारे में मान्यता है कि इसका अस्तित्व चारों युगों- सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग से जुड़ा हुआ है। सतयुग में इसे सत्यव्रत, त्रेता में महादगिरि, द्वापर में पिंगल और कलियुग में संभल कहा गया। इतिहास के पन्नों में संभल का पहला उल्लेख 885 संवत में मिलता है। जब कन्नौज के शासक नागभट्ट-II ने यहां से जारी किए गए ताम्रपत्र में इसे शंभू पालिका कहा। नौवीं शताब्दी तक यह एक समृद्ध नगर बन चुका था। ताम्रपत्रों से पता चलता है कि इस काल में यहां कई भव्य मंदिर थे। स्कंद पुराण के आधार पर लिखे गए संभल महात्म्य ग्रंथ में इस नगर को 68 तीर्थक्षेत्रों और 19 पवित्र कुओं का केंद्र बताया गया है। 700 ईस्वी के आसपास तोमर राजवंश ने यहां शासन स्थापित किया। तोमर राजा जगत सिंह ने इन तीर्थक्षेत्रों के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
तीर्थों और किलों की धरोहर
संभल का प्राचीन इतिहास न केवल राजाओं और युद्धों की कहानियों से समृद्ध है, बल्कि यह धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व का भी केंद्र रहा है। स्कंद पुराण पर आधारित ग्रंथ संभल महात्म्य में संभल को 68 तीर्थ क्षेत्रों और 19 पवित्र कुओं के लिए जाना गया है। 700 ईस्वी के आसपास तोमर राजवंश ने इस क्षेत्र पर शासन किया। राजा जगत सिंह के नेतृत्व में इस काल में 68 तीर्थों और कई अन्य धार्मिक स्थलों का निर्माण हुआ। यह माना जाता है कि उन्होंने ही इन स्थलों को विकसित किया। जो तब से धार्मिक यात्रियों और श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र बने रहे।
डोर और चौहान वंश का प्रभाव
डोर राजवंश के राजा नाहर सिंह ने संभल में एक भव्य किले का निर्माण कराया। यह किला डोर वंश की सैन्य और स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण था। बाद में चौहान वंश ने इस क्षेत्र पर कब्जा किया। राजा बीसलदेव चौहान के नेतृत्व में दिल्ली पर तोमर राजवंश को पराजित किया गया और संभल चौहानों के अधीन आ गया। पृथ्वीराज चौहान ने इस क्षेत्र को अपने शासन का एक महत्वपूर्ण केंद्र बनाया और कई छोटे-छोटे किलों का निर्माण कराया। पृथ्वीराज चौहान के शासनकाल में बनाए गए किलों के अवशेष आज भी संभल की समृद्ध विरासत की कहानी सुनाते हैं। चौराखेड़ा नामक प्राचीन किले के अवशेष वर्तमान में सोत नदी के किनारे बहजोई क्षेत्र में पाए जाते हैं। यह किला चौहान वंश की स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है और संभल की ऐतिहासिक गहराई का प्रमाण है।
संभल का ऐतिहासिक किला और धार्मिक धरोहर
संभल का इतिहास केवल योद्धाओं और राजाओं की गाथाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहरों का भी साक्षी रहा है। इस क्षेत्र में स्थित एक प्राचीन शिव मंदिर न केवल धार्मिक महत्व रखता है बल्कि ऐतिहासिक दृष्टि से भी अनमोल है। सावन के महीने में इस मंदिर में जलाभिषेक के लिए भक्तों की भीड़ उमड़ती है।
पृथ्वीराज चौहान और उनके सामंत के लिए बना किला
राजपूत योद्धा पृथ्वीराज चौहान ने अपने प्रिय सामंत चौधरी के लिए संभल में एक किले का निर्माण कराया था। यह किला उस समय की राजपूत स्थापत्य कला का बेजोड़ उदाहरण था। हालांकि, दिल्ली सल्तनत के दौरान इस किले को ढहा दिया गया। इसके अवशेषों का उपयोग आसपास के गांवों में मकान बनाने के लिए किया गया था। दिलचस्प बात यह है कि इस किले का एक हिस्सा आज भी सुरक्षित है और यह संभल की समृद्ध विरासत का प्रतीक है। यह क्षेत्र इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के लिए अध्ययन का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन चुका है।
भगवान विष्णु का हरि मंदिर
कहा जाता है कि पृथ्वीराज चौहान ने यहां भगवान विष्णु के सम्मान में एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया था, जिसे हरि मंदिर कहा जाता था। यह मंदिर रुहेलखंड क्षेत्र में राजपूत काल की शिल्पकला का अद्भुत उदाहरण था। दुर्भाग्यवश मुगलकाल के दौरान यह मंदिर ध्वस्त हो गया लेकिन इसकी यादें आज भी संभल की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा हैं।
कुतुबुद्दीन ऐबक से लेकर शर्की सुल्तानों तक का प्रभाव
संभल का ऐतिहासिक महत्व मध्यकाल में और भी बढ़ गया जब यह मुसलिम शासन का एक प्रमुख केंद्र बना। कुतुबुद्दीन ऐबक ने संभल और अमरोहा को अपनी प्रशासनिक गतिविधियों का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया। यह क्षेत्र उस समय से ही रणनीतिक और राजनीतिक दृष्टि से अहम माना जाता था।
राजपूत सत्ता के सामने असफल प्रयास
साल 1248 ईस्वी में दिल्ली सल्तनत ने मलिक जलालुद्दीन को संभल का गवर्नर नियुक्त किया। उनका मुख्य उद्देश्य था राजपूत सत्ता को समाप्त कर यहां सल्तनत का प्रभाव बढ़ाना। हालांकि राजपूतों की मजबूत पकड़ और संघर्ष के कारण जलालुद्दीन इस कार्य में सफल नहीं हो सके। यह संघर्ष उस समय की राजनीतिक उथल-पुथल को दर्शाता है।
शर्की सुल्तानों का अधिकार और सिक्कों का इतिहास
1407 ईस्वी में जौनपुर के शर्की सुल्तान, इब्राहिम शर्की ने संभल पर अधिकार कर लिया। शर्की शासनकाल में संभल का महत्व और बढ़ गया। इस दौरान यहां बड़े पैमाने पर आर्थिक गतिविधियां बढ़ीं और इसे एक समृद्ध क्षेत्र के रूप में विकसित किया गया। आज भी संभल में इब्राहिम शर्की के शासनकाल के सिक्के बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। जो उस युग की आर्थिक समृद्धि और सांस्कृतिक विविधता की गवाही देते हैं।
दिल्ली सल्तनत और मुगलकाल में संभल
संभल का ऐतिहासिक महत्व दिल्ली सल्तनत और मुगलकाल दोनों में बना रहा। बहलोल लोदी के शासनकाल में यह क्षेत्र न केवल प्रशासनिक दृष्टि से बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी महत्वपूर्ण स्थान बन गया।
बहलोल लोदी और संभल की जागीर
बहलोल लोदी ने अपने पुत्र सिकंदर लोदी को संभल को जागीर के रूप में प्रदान किया। सिकंदर लोदी ने दिल्ली के सिंहासन पर बैठने के बाद भी अगले चार वर्षों तक संभल में अपना निवास बनाए रखा। जिससे यह क्षेत्र लोदी वंश की गतिविधियों का एक प्रमुख केंद्र बन गया। इसी दौरान सुल्तान सिकंदर लोदी ने संभल में एक धर्मसभा का आयोजन किया। जो इस क्षेत्र के धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व को उजागर करता है।
बैरम खान को जागीर के रूप में मिला था संभल
मुगल साम्राज्य के दौरान संभल का महत्व और बढ़ा। जब शेरशाह सूरी ने हुमायूं को हराकर दिल्ली की सत्ता पर कब्जा किया, तो उसने 1552 ईस्वी में मित्रसेन को संभल का गवर्नर नियुक्त किया। बाद में, हुमायूं ने जब दोबारा दिल्ली पर अधिकार कर लिया तो उसने इस क्षेत्र को बैरम खान को जागीर के रूप में सौंप दिया। बैरम खान ने ईशा खान को संभल का गवर्नर नियुक्त किया।
अकबर के शासनकाल में संभल की स्थिति
अकबर के शासनकाल में संभल दिल्ली सरकार का अभिन्न हिस्सा बन गया। अकबर की प्रशासनिक योजना के तहत संभल में कुल 27 महलों का उल्लेख किया गया है, जिनमें वर्तमान मुरादाबाद जनपद भी शामिल था। यह क्षेत्र अकबर की आर्थिक और सांस्कृतिक नीतियों का भी केंद्र रहा।
संघर्ष, लूट और स्वतंत्रता संग्राम का ऐतिहासिक साक्षी
संभल का इतिहास केवल सांस्कृतिक और प्रशासनिक महत्व तक सीमित नहीं है, बल्कि यह संघर्ष, आक्रमणों और स्वतंत्रता संग्राम की गाथाओं से भी समृद्ध है। 18वीं और 19वीं सदी के दौरान, यह क्षेत्र बार-बार आक्रमणकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्षों का गवाह बना।
मराठा आक्रमण और गांवों की लूट
1772 में मराठों ने संभल क्षेत्र पर दूसरा बड़ा आक्रमण किया। इस बार संभल के साथ-साथ मुरादाबाद और बिजनौर के लगभग 1300 गांवों को लूटा गया। यह आक्रमण उस समय की अशांति और असुरक्षा को दर्शाता है, जब मराठा सेना स्थानीय क्षेत्रों को लूटकर अपनी शक्ति बढ़ा रही थी।
पिंडारियों ने संभल पर किया हमला
1805 में पिंडारियों ने संभल, मुरादाबाद, चंदौसी और बिजनौर जैसे शहरों पर हमला किया। पिंडारी कोई जाति नहीं थी, बल्कि बिना वेतन के सैनिकों का एक समूह था। जो अपनी जीविका के लिए लूटपाट करता था। मराठा शासक इनका उपयोग अंग्रेजों के खिलाफ गड़बड़ी फैलाने के लिए करते थे। पिंडारियों के नेतृत्व में पठान युवा आमिर खान ने ख्याति प्राप्त की और वह इस दल का प्रमुख बन गया।
स्वतंत्रता संग्राम में संभल की भूमिका
संभल ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 13 मई 1857 को जब क्रांति की लहर इस क्षेत्र तक पहुंची तो अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर ने क्रांति के संचालन के लिए सेनापति बख्त खान को संभल भेजा। संभल के वीर नागरिक, जैसे मुंशी अमीनुद्दीन और नियादी शेख तुर्क, क्रांति की अगुवाई में आगे आए। जब मेरठ में अंग्रेजी सेना ने क्रांतिकारियों को कमजोर करने की कोशिश की तो संभल के लोगों ने बख्त खान की मदद करने का निश्चय किया। गजरौला में उनका स्वागत करते हुए उन्हें संभल लाया गया।
अंग्रेजों का दमन और बलिदान
1857 की क्रांति के दमन के बाद अंग्रेजों ने संभल के स्वतंत्रता सेनानियों पर क्रूरता दिखाई। मुंशी अमीनुद्दीन और नियादी शेख तुर्क को मुरादाबाद के मोहल्ला भट्टी में चूने के पानी में डुबाकर निर्ममता से मार डाला गया।
गांधी युग और आजादी का आंदोलन
महात्मा गांधी के नेतृत्व में जब आजादी की लड़ाई तेज हुई तो संभल के लोगों ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इस क्षेत्र ने आजादी के आंदोलन में कई महत्वपूर्ण योगदान दिए।
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