सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया है। जिसमें उसने 6-1 के बहुमत से यह स्पष्ट कर दिया है कि राज्यों को आरक्षण के अंतर्गत कोटा के भीतर सब-कैटेगरी बनाने...
कोटे के अंदर कोटा देने का 'सुप्रीम' फैसला : 20 साल पुराने फैसले को अदालत ने क्यों पलटा, समझिए इसके फायदे और नुकसान
Aug 01, 2024 15:10
Aug 01, 2024 15:10
2004 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश सरकार के मामले में फैसला सुनाया था कि राज्य सरकारें अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए नौकरी में आरक्षण के लिए सब-कैटेगिरी नहीं बना सकतीं। पंजाब सरकार ने इस फैसले के खिलाफ तर्क दिया कि इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (1992) के निर्णय के तहत अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के भीतर सब-कैटेगिरी की अनुमति दी गई थी, इसलिए अनुसूचित जातियों के भीतर भी ऐसा होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने 2020 में निर्णय लिया था कि इस मुद्दे पर बड़े बेंच द्वारा फिर से विचार किया जाना चाहिए। अब सुप्रीम कोर्ट ने 6-1 के बहुमत से यह निर्णय सुनाया है कि पिछड़े समुदायों के भीतर हाशिये पर पड़े लोगों के लिए अलग से कोटा देने के लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की सब-कैटेगिरी जायज है। हालांकि, जस्टिस बेला त्रिवेदी ने इस फैसले से असहमति जताई। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि कोटा के भीतर कोटा का प्रावधान गुणवत्ता के विरुद्ध नहीं है। अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति से आने वाले व्यक्तियों को अक्सर सिस्टम के भेदभाव के कारण प्रगति में कठिनाई होती है। सब-कैटेगिरी संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करती। हालांकि, राज्य अपनी मर्जी या राजनीतिक लाभ के आधार पर सब-कैटेगिरी नहीं तय कर सकते और उनके फैसले न्यायिक समीक्षा के अधीन होंगे।
जमीनी हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता : जस्टिस बीआर गवई
न्यायमूर्ति बीआर गवई ने कहा कि राज्य का कर्तव्य है कि वह अधिक पिछड़े समुदायों को प्राथमिकता दे। उनके अनुसार वर्तमान में अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) वर्गों में केवल कुछ ही लोग आरक्षण के लाभ का पूरा उपयोग कर पा रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि जमीनी हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता और SC/ST वर्गों के भीतर ऐसी श्रेणियाँ हैं। जिन्हें सदियों से अत्यधिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है। न्यायमूर्ति गवई ने सुझाव दिया कि राज्यों को SC और ST श्रेणियों के बीच क्रीमी लेयर की पहचान के लिए एक ठोस नीति तैयार करनी चाहिए। साथ ही, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ ने भी इस मुद्दे पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि क्रीमी लेयर का सिद्धांत अनुसूचित जातियों (SC) पर भी उसी तरह लागू होना चाहिए जैसे कि यह अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) पर लागू होता है। सुनवाई के दौरान, केंद्र सरकार ने दलित वर्गों के लिए आरक्षण की रक्षा करते हुए कहा कि वह SC-ST आरक्षण के भीतर विभिन्न सब कैटेगरी के पक्ष में है। केंद्र का तर्क था कि SC-ST वर्गों के लिए आरक्षण की प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है, लेकिन इसके लिए एक ठोस और सुविचारित नीति की जरूरत है ताकि सभी वर्गों को उचित लाभ मिल सके।
जानिए क्या है कोटा के भीतर कोटा
"कोटा के भीतर कोटा" का मतलब है कि आरक्षण के पहले से निर्धारित प्रतिशत के भीतर, एक विशेष उप-समूह या उप-वर्ग को अलग से आरक्षण प्रदान किया जाए। यह प्रक्रिया इस उद्देश्य से लागू की जाती है कि बड़े आरक्षित समूहों के भीतर छोटे और कमजोर वर्गों को अतिरिक्त लाभ मिल सके। इस व्यवस्था का प्रमुख उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि आरक्षण का लाभ समाज के सबसे कमजोर और वंचित वर्गों तक पहुंचे। इससे यह सुनिश्चित होता है कि उच्च जातियों के भीतर भी कमजोर वर्गों को प्राथमिकता मिले, जिन्हें सामान्य आरक्षण प्रणाली में नजरअंदाज किया जा सकता है। कोटा के भीतर कोटा के माध्यम से सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को कम किया जा सकता है। यह सुनिश्चित करता है कि आरक्षण की प्रक्रिया में सभी वर्गों को उनके वास्तविक हक के अनुसार अवसर मिले। कोटा के भीतर कोटा एक महत्वपूर्ण नीति है जिसका उद्देश्य आरक्षण प्रणाली को और अधिक न्यायपूर्ण और प्रभावी बनाना है। यह सुनिश्चित करता है कि समाज के सबसे कमजोर वर्गों को भी उचित अवसर मिल सके। हालांकि इसके लागू करने में विभिन्न चुनौतियाँ हो सकती हैं, लेकिन सही दिशा में कार्य करने से इससे समाज में समानता और न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण सुधार लाए जा सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मायने
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया है, जिसके बाद राज्य सरकारों को अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) के बीच सब-कैटेगरी बनाने की अनुमति मिल गई है। इस फैसले के कई महत्वपूर्ण पहलू हैं, जो न केवल आरक्षण प्रणाली को प्रभावित करेंगे, बल्कि समाज में सामाजिक और शैक्षणिक समानता को भी नया रूप देंगे। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि राज्य सरकारें अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के भीतर उप-श्रेणियाँ बना सकती हैं। इसका उद्देश्य है कि आरक्षण का लाभ अधिक जरूरतमंद और सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों को बेहतर तरीके से मिल सके। यह व्यवस्था उन वर्गों को प्राथमिकता देती है जिनकी स्थिति अधिक दयनीय है और जिन्हें आरक्षण का सबसे अधिक लाभ नहीं मिल पा रहा था।
छेड़छाड़ का खतरा
फैसले में यह भी साफ किया गया है कि यदि राज्य सरकारें एक या ज्यादा उप-श्रेणियों को अनुसूचित जाति के तहत 100% आरक्षण देने का निर्णय लेती हैं, तो यह व्यवस्था में छेड़छाड़ के समान होगा। इसका तात्पर्य है कि इस तरह की व्यवस्था अन्य श्रेणियों के लाभ को प्रभावित कर सकती है और उन्हें आरक्षण से वंचित कर सकती है।
डेटा और सर्वे की आवश्यकता
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी आदेशित किया है कि राज्य सरकारों के पास जातियों का डेटा होना चाहिए, जो एक व्यापक और सटीक जमीनी सर्वेक्षण पर आधारित हो। यह डेटा निर्धारित करेगा कि आरक्षण के तहत कौन सी जाति को कोटे में कितनी प्राथमिकता दी जाएगी। यह कदम यह सुनिश्चित करने के लिए है कि आरक्षण का लाभ सही लोगों तक पहुंचे और किसी भी वर्ग को अनावश्यक रूप से लाभ से वंचित न किया जाए।
आरक्षण का उद्देश्य और विवाद
आरक्षण का मुख्य उद्देश्य सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को समान अवसर प्रदान करना है। हालांकि, बड़े समूहों के भीतर कुछ उप-समूह अधिक लाभ उठा लेते हैं, जिससे अन्य उपेक्षित रह जाते हैं। उदाहरण के लिए, ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) में विभाजन किया गया है ताकि अधिक पिछड़े वर्गों को अधिक लाभ मिल सके। इसी तरह, कुछ राज्यों ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण को भी विभाजित किया है।
सब कैटेगरी रिजर्वेशन के उदाहरण
भारतीय राज्यों में जाति आधारित आरक्षण प्रणाली को सुधारने के लिए हाल के वर्षों में सब-कैटेगरी रिजर्वेशन की अवधारणा पर चर्चा तेज हो गई है। तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों ने अनुसूचित जातियों (SC), अनुसूचित जनजातियों (ST), और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) में विभिन्न उप-श्रेणियों को आरक्षण देने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। यह व्यवस्था समाज में विभिन्न जातीय और सामाजिक समूहों की विशिष्ट आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए लागू की गई है।
तमिलनाडु और कर्नाटक में सब-कैटेगरी रिजर्वेशन की व्यवस्था
तमिलनाडु में, पिछड़ा वर्ग (BC), अत्यंत पिछड़ा वर्ग (MBC), और अति पिछड़ा वर्ग (Vanniyar) जैसी सब-कैटेगरी को ओबीसी आरक्षण के अंतर्गत लाया गया है। इसी प्रकार, कर्नाटक ने अनुसूचित जाति के भीतर कोडवा और माडिगा जैसी उप-श्रेणियों को अलग-अलग आरक्षण देने का निर्णय लिया है। यह कदम यह सुनिश्चित करता है कि विभिन्न उप-श्रेणियों को उनकी विशिष्ट सामाजिक और आर्थिक स्थितियों के अनुसार उचित प्रतिनिधित्व और अवसर मिल सकें।
संविधानिक प्रावधान
भारतीय संविधान अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को विशेष दर्जा देता है, लेकिन इसमें जातियों की विशेष सूची का वर्णन नहीं किया गया है। अनुच्छेद 341 के अनुसार, अनुसूचित जातियों की सूची राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित की जाती है, और एक राज्य में एससी के रूप में अधिसूचित जाति दूसरे राज्य में एससी नहीं भी हो सकती है। इस प्रकार, संविधान ने केंद्र सरकार को जातियों के आरक्षण पर अधिकार प्रदान किया है, लेकिन राज्य सरकारों को भी अपनी विशेष परिस्थितियों के अनुसार निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी है।
राज्य सरकारों की जिम्मेदारी
सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के अनुसार, राज्य सरकारें अब सब-कैटेगरी रिजर्वेशन को लागू करने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठा सकती हैं। इसके लिए राज्यों को सामाजिक और आर्थिक आंकड़े एकत्रित करके उप-श्रेणियों की स्थिति का विश्लेषण करना होगा। यह प्रक्रिया सर्वेक्षण, जनगणना, और रिसर्च के माध्यम से की जा सकती है। साथ ही, एक्सपर्ट कमेटियों का गठन भी किया जा सकता है, जो विस्तृत रिपोर्ट तैयार कर सुझाव प्रदान करेंगी। राज्य सरकारें सब-कैटेगरी रिजर्वेशन को कानूनी मान्यता देने के लिए विधानमंडल में विधेयक पेश कर सकती हैं। इसके साथ ही, किसी कानूनी चुनौती का सामना करने के लिए न्यायिक समीक्षा का सहारा लिया जा सकता है। इसके अलावा, सार्वजनिक परामर्श आयोजित कर विभिन्न समुदायों के नेताओं और नागरिकों की राय भी ली जा सकती है, जिससे नीतियों में पारदर्शिता और समर्थन बढ़ेगा।
अनुसूचित जातियों की स्थिति
सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 2018-19 में देश में कुल 1,263 अनुसूचित जातियाँ थीं। हालांकि, अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, अंडमान और निकोबार, तथा लक्षद्वीप में कोई समुदाय अनुसूचित जाति के रूप में चिह्नित नहीं है।
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