धर्म-जाति पर आ टिकी यूपी की चुनावी लड़ाई : अंतिम तीन चरणों में 41 सीटों पर होगा फैसला, जनता को लुभाने में कौन होगा कामयाब?

अंतिम तीन चरणों में 41 सीटों पर होगा फैसला, जनता को लुभाने में कौन होगा कामयाब?
UPT | चुनावी लड़ाई

May 19, 2024 21:50

एनडीए और  इंडी गठबंधन की किस्मत का फैसला करने के लिहाज से तो इन 41 सीटों की लड़ाई महत्वपूर्ण है ही लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इस धरती का संग्राम  2024 की चुनावी संग्राम के मुख्य किरदारों का भविष्य तय करने जा रहा है।

May 19, 2024 21:50

Short Highlights
  • यूपी में अब धर्म-जाति का असली संग्राम
  • सभी की उम्मीदें जगाती है धरती
  • विरासत व विकास तो ध्रुवीकरण भी खास
Lucknow News : यूपी में अब धर्म-जाति का असली संग्राम देखने को मिलेगा। यूपी की 80 में अंतिम तीन चरणों में अब जिन 41 सीटों के लिए वोट डाले जाने हैं  उनकी तासीर ही ऐसी है जो पक्ष-विपक्ष सभी की उम्मीदें जगाती है। जगाए भी तो क्यों न, इस धरती के समीकरण ही कुछ ऐसे हैं। बुंदेलखंड से बलिया, लखनऊ से प्रयागराज, अयोध्या से काशी के बीच फैली इस धरती पर भाजपा के पास विरासत और विकास पर हुए कामों को लेकर गिनाने को बहुत कुछ है तो विपक्षी गठबंधन इंडी के लिए भी अपने समीकरण साधने को काफी कुछ है। राष्ट्रवाद को धार देने के लिए भी काफी मुद्दें हैं तो भाजपा विरोधियों के लिए ध्रुवीकरण को धार देने और मुस्लिम वोट बैंक साधकर समीकरण दुरुस्त करने के साधन भी कुछ कम नहीं है।

इसलिए इन बची 41 सीटों की चुनावी लड़ाई खास भी है और दिलचस्प भी। एनडीए और  इंडी गठबंधन की किस्मत का फैसला करने के लिहाज से तो इन 41 सीटों की लड़ाई महत्वपूर्ण है ही लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इस धरती का संग्राम  2024 की चुनावी संग्राम के मुख्य किरदारों का भविष्य तय करने जा रहा है। जाहिर है कि यूपी की इन बची 41 सीटों पर होने वाला चुनावी संग्राम सिर्फ आंकड़ों के लिहाज से नहीं बल्कि देश की भावी राजनीति की दिशा व दशा तय करने क लिहाज से भी महत्वपूर्ण है । कारण, यूपी की इन्हीं 41 सीटों में ही नरेन्द्र मोदी  और राहुल गांधी की किस्मत का भी फैसला होना है । बात सिर्फ इन नेताओं की जीत-हार की नहीं हो रही है । बात हो रही है इन 41 सीटों के नतीजों के महत्व की । मोदी की कर्मभूमि और राहुल की पितृभूमि के इर्द-गिर्द सिमटी इन सीटों के नतीजों से यह  भी तय हो जाएगा कि मोदी की सियासत की दिशा क्या होगी । साथ ही राहुल और अखिलेश का राजनीतिक भविष्य क्या कह रहा है ।

भाजपा की चुनावी रणनीति को मिलेगी दिशा 
इन सीटों का चुनावी संग्राम महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि इनमें अयोध्या  भी है और काशी भी । भाजपा की विरासत के एजेंडे को धार देने वाले देवीपाटन, विंध्याचल, प्रयागराज, चित्रकूट, श्रंगबेरपुर और कुशीनगर तो इनमें शामिल ही है। इसके अलावा संत कबीर, संत रविदास, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर और सिखों की आस्था से जुड़े कई स्थल भी इन 41 सीटों के बीच हैं। जो भाजपा की सनातन सरोकारों के एजेंडे को ताकत देते हैं। भाजपा ने 2017 में प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद केंद्र और राज्य सरकार ने इन स्थलों के कायाकल्प करने का अभियान छेड़ रखा है। सबसे बड़ी बात देश की राजनीति की दिशा और दशा बदलने वाला तथा भाजपा का फर्श से अर्श तक पहुंचाने वाली अयोध्या। जहां श्रीराम जन्मभूमि स्थल पर विशाल मंदिर में रामलला की प्राणप्रतिष्ठा कर भाजपा ने एक बड़े वायदे को हकीकत में बदलकर दिखाया है। साथ ही काशी-विश्वनाथ कॉरीडोर के निर्माण और न्यायालय के आदेश के बाद वर्षों से बंद ज्ञानवापी के व्यास के तहखाने में रात में पूजा-अर्चना शुरू कराकर भाजपा ने यह संदेश दे दिया है कि सनातनी आस्था की रक्षा और उसे सम्मान सिर्फ भाजपा सरकार ही दे सकती है। जाहिर है कि यहां के नतीजे भाजपा के सनातनी एजेंडे की दिशा तय करेंगे। जीत सनातनी आस्था पर काम आगे बढ़ाने की ताकत देगी लेकिन नतीजे इससे इतर रहे तो भाजपा को पुनर्विचार के लिए मजबूर होना पड़ेगा।

भाजपा के पास बहुत कुछ है बताने को  
विरासत ही नहीं विकास के मुद्दे पर भी भाजपा के पास बताने के लिए यहां बहुत कुछ है। याद कीजिए 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले तब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी का गोरखपुर की रैली में दिया गया भाषण। यह रैली विजय शंखनाद रैलियों के क्रम में पूर्वाचंल में मोदी की पहली रैली थी। इसमें प्रधानमंत्री ने पूर्वाचंल के पिछड़ेपन को मुद्दा बनाया था। इसी रैली में उन्होंने पूर्वाचंल की बदहाली को सरकार बनने पर खुशहाली में बदलने का वायदा भी किया था। पूर्वाचंल के  लोगों को उनकी बातों पर भरोसा रहे, शायद इसीलिए उन्होंने वाराणसी से चुनाव लड़ने का फैसला भी किया था। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि मोदी और योगी ने वास्तव में पूर्वाचंल की तस्वीर काफी कुछ बदल दी है। एक्सप्रेस वे के अलावा सड़कों का जाल, मेडिकल कॉलेज, एम्स, एक के बाद एक कई विश्वविद्यालय, हवाई अड्डों का निर्माण, रेलवे मार्ग का विस्तार, रेल पुलों का निर्माण, कई उद्योगों को पुनर्जीवन और तमाम नए उद्योगों की शुरुआत ने वास्तव में पूर्वाचंल की तस्वीर बदली है। खासतौर से मुख्यमंत्री योगीआदित्यनाथ की "एक जिला एक उत्पाद" (ODOP) ने अवध से पूर्वाचंल के कालीन, बनारसी साड़ियों, खिलौना, टेराकोटा कला, मूंज,आंवला के विभिन्न उत्पादों  को विस्तार एवं बाजार उपलब्ध कराने से भी तस्वीर काफी बदली है। एक्सप्रेस वे ने पूर्वाचंल के उत्पादों की कम समय में बाजार तक पहुंच बनाई है।

सवाल है लेकिन उम्मीदों पर विराम नहीं
गंगा की निर्मलता को लेकर सवाल हैं लेकिन गंगा की निर्मलता के सरोकारों पर केंद्र और राज्य सरकार की निरंतर मुखरता उम्मीदों पर विराम नहीं लगाती। प्रधानमंत्री मोदी की 2021 के दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में गंगा में डुबकी और अब 2024 में वाराणसी से तीसरी बार लोकसभा की सदस्यता के लिए बतौर उम्मीदवार नामाकंन से पहले गंगा पूजन, गंगा की निर्मलता  के सरकार के संकल्प को बल ही देता है। ध्यान देने की बात यह भी है कि इन 41 सीटों का इलाका ऐसा है जिसका ज्यादातर हिस्सा पिछड़ा माना जाता है। इसीलिए सरकार के रिकार्ड में दर्ज आकांक्षी जिलों में यूपी के जो आठ जिले आते हैं वे सभी इसी इलाके के हैं। हालांकि इनमें एक बहराइच लोकसभा सीट का चुनाव हो चुका है लेकिन बहराइच के कुछ हिस्से वाली कैसरगंज सीट के अलावा शेष सात सोनभद्र, चंदौली, चित्रकूट, सिद्धार्थनगर, फतेहपुर, श्रावस्ती और बलरामपुर जिलों की लोकसभा सीटों का चुनाव इन्हीं शेष तीन चरणों में होना है । गरीबों की काफी आबादी इसी इलाके में है। जाहिर है कि आकांक्षी जिलों के विकास और गरीब कल्याण योजनाओं के लाभार्थियों की संख्या भी भाजपा के लिए इस इलाके में उम्मीदों का मजबूत आधार है। हालांकि विपक्ष के लिए भी यहां मुद्दों की कमी है 

मुस्लिम ध्रुवीकरण बड़ा हथियार
अयोध्या यदि भाजपा की ताकत है तो यही इंडी गठबंधन की भी ताकत है। यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि वह अयोध्या की कारसेवा ही थी जिस पर प्रतिबंध लगाकर तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव मुस्लिमों के मसीहा कहलाए थे। साथ ही मुस्लिम वोटों को कांग्रेस से तोड़ सपा के पाले में कर लिया था। जो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पराभव की बड़ी वजह रही। अयोध्या, काशी, प्रयागराज, विंध्याचल जैसे कई स्थानों  पर विरासत आधारित विकास को विपक्ष यानी इंडी गठबंधन जिस तरह मुस्लिमों के बीच अस्तित्व रक्षा के सवाल को उठाकर उन्हें अपने पक्ष में करने की निरंतर कोशिश करता चला आ रहा है, वह भाजपा के लिए बड़ी चुनौती भी है। यह चुनौती तब और बड़ी दिखती है जब इन 41 सीटों के आबादी के समीकरणों का विश्लेषण करते हैं। तकरीबन एक दर्जन सीटों पर मुस्लिम आबादी भी ठीकठाक है। साथ ही मुख्तार अंसारी की मौत ने भी इस क्षेत्र में सपा और कांग्रेस को मुस्लिम ध्रुवीकरण का हथियार मुहैया करा रखा है। मुख्तार के भाई अफजाल सपा के ही टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। सपा के पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) फारमूले के लिहाज से भी गणित अनुकूल दिखती है। कारण, जातिवादी राजनीति के लिए पूर्वाचंल काफी पहले से उल्लेखनीय है।

कौन सी करवट लेंगे पिछड़े
जातीय विविधताओं से भरी इन 41 सीटों में कई पर पिछड़े और दलित मतदाता मुस्लिम मतदाताओं के साथ चुनावी गणित में  भारी पड़ते दिखते हैं। हालांकि ये निष्कर्ष निकालना अभी कठिन है कि जातीय अस्मिता की राजनीति में मोदी भारी पड़ेंगे या अखिलेश। राहुल की बात इसलिए नहीं क्योंकि वह जातीय जनगणना की बात भले कर रहे हों। संविधान में बदलाव और आरक्षण खत्म होने के बात कहकह दलितों और पिछड़ों को लुभाने की कोशिश कर रहे हों लेकिन राजनीतिक पंडितों को जाति की चौसर पर राहुल बहुत प्रभावी नहीं दिखते। राजनीतिक विश्लेषक आसिफ मजीद तर्क देते हैं कि यूपी की जातीय विविधता की बात की जाए तो पिछड़ों का समर्थन हासिल करने के मुद्दे पर मोदी के सामने राहुल कहीं नहीं टिकते। आखिर राहुल के साथ कोई पिछड़ी जाति क्यों अपनत्व महसूस करेगी वह भी तब जब राहुल उसी नेहरू परिवार के प्रतिनिधि हैं। जिसकी पहचान ही ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम समीकरण से राजनीति करने की रही है। हां, अखिलेश जरूर इस मामले पर राहुल से बीस बैठते हैं लेकिन यहां भी सवाल इस बात पर आकर टिक जाता है कि अवध से लेकर पूर्वाचंल तक फैली पिछड़ी जातियां मोदी की तुलना में अखिलेश को क्या वह तवज्जो देंगी जो चुनावी गणित बदल सके। वर्तमान परिस्थिति में ऐसा मुश्किल लगता है। एक तो मोदी खुद पिछड़े हैं और दूसरे उन्होंने केशव मौर्य, अनुप्रिया पटेल से लेकर ओमप्रकाश राजभर, अनिल राजभर, संजय निषाद, बाबूराम निषाद, अमरपाल मौर्य जैसे पिछड़ी जातियों के कई चेहरों को वह सम्मान दे रखा है जो पिछड़ों में मोदी पर भरोसा बढ़ाता है। अखिलेश ने भले ही इस चुनाव में उम्मीदवार तय करने में यादव के बजाय अन्य पिछड़ी जातियों को अच्छी भागीदारी दी हो लेकिन सरकार बनने पर यादव को तवज्जो के आरोपों से अभी वे पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए हैं।

इसलिए भी है ये तीन चरण खास    
फिर इन सीटों पर दलित मतदाता भी अच्छी संख्या में है। अखिलेश ने भले ही पीडीए का नारा दे रखा हो लेकिन गहराई से विचार करे तो उनके पास फिलहाल कोई दलित वर्ग का ऐसा प्रभावी चेहरा नहीं दिखता जो इन मतदाताओं को उनकी तरफ मोड़ने की सामर्थ्य रखता हो। कांग्रेस भी फिलहाल इस मामले में खाली हाथ ही है। ऐसे में सवाल उठता है कि दलित मतदाता किधर जाएगा। वैसे तो मायावती ने अपने उम्मीदवार उतारे हैं। पर, वह इस चुनाव में पहले जितना सक्रिय नहीं दिख रही हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि दलित वर्ग का वह मतदाता जो सकारात्मक परिणाम के लिए वोट करना चाहता है उसका रुख क्या होगा? ऐसे में विकल्प भाजपा ही दिखती है क्योंकि मोदी दलित वर्ग के भले न हो लेकिन पिछले कुछ चुनाव में दलित वर्ग का रुझान उनके साथ देखा गया है। फिर दलितों के लिए काम और उनके सरोकारों को सम्मान की उपलब्धि भी भाजपा के खाते में ही दिखती है।

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