अघोरी साधु नाम आते ही मन में तरह-तरह के ख्याल आने लगते हैं। आम जनजीवन में इन्हें लेकर जो चर्चा होती रहती है, उनमें अघोरी बाबाओं की तंत्र साधना, श्मशान में साधना, शवों के बीच अघोरी बाबाओं की तंत्र क्रिया, मांस भक्षण आदि का जिक्र होता है। फिल्मों से लेकर टीवी सीरियल के जरिए भी अघोरी बाबाओं की ऐसी छवि लोगों के मन में बनी हुई है।
अघोरी साधकों की इस धार्मिक नगरी से हुई उत्पत्ति : श्मशान की राख लगाने से लेकर इंसान के मांस खाने का जानें मिथक-हकीकत
Jan 13, 2025 18:02
Jan 13, 2025 18:02
फिल्म और टीवी सीरियल ने बनाई अघोरी साधकों की अलग छवि
अघोरी साधु नाम आते ही मन में तरह-तरह के ख्याल आने लगते हैं। आम जनजीवन में इन्हें लेकर जो चर्चा होती रहती है, उनमें अघोरी बाबाओं की तंत्र साधना, श्मशान में साधना, शवों के बीच अघोरी बाबाओं की तंत्र क्रिया, मांस भक्षण आदि का जिक्र होता है। फिल्मों से लेकर टीवी सीरियल के जरिए भी अघोरी बाबाओं की ऐसी छवि लोगों के मन में बनी हुई है। ऐसे में वह इनके बीच जाने से बेहद डरते हैं। हालांकि महाकुंभ के दौरान ऐसा नहीं है। अघोरी भी अन्य साधकों की तरह रमे हुए हैं। अपनी साधना के नियमों का पालन कर रहे हैं।
कुंभ के अलावा काशी में मसाने की होली के दौरान नजर आते हैं अघोरी
सवाल पूछने पर वह अपने जीवन के बारे में चर्चा भी करते हैं। लेकिन, इनमें ऐसा कुछ नजर नहीं आता, जैसा कि आमतौर पर धारणा बनी हुई है। देखा जाए तो इनकी साधना पद्धति सिर्फ अन्य लोगों से भिन्न है। माना जाता है कि सबसे पहले अघोरी साधकों की उत्पत्ति दुनिय की सबसे प्राचीन धार्मिक नगरी काशी से हुई। ये स्थान शिव साधना का केंद्र है। यहां चिता भस्म की होली के दौरान आज भी अघोरी साधक नजर आते हैं और मसाने की होली के दौरान चिता की राख को अपने शरीर पर लगाकर नृत्य करते हैं। मान्यता है कि काशी से ही अघोरी देश के अलग-अलग हिस्सों में फैल गए।
समय के साथ अघोरी साधकों ने पद्धति में किए बदलाव
अघोरी संप्रदाय ने वक्त के साथ अपनी साधना में बदलाव भी किया है। सामान्य तौर पर यह आम जनजीवन से दूर रहकर अपना जीवन व्यतीत करते आए हैं। जंगल और श्मशान जैसे एकांत स्थल, इनकी साधना का अहम केंद्र हुए करते रहे हैं, जहां पर सामान्य तौर पर लोगों की आवाजाही नहीं होती है। कहा जाता है कि इस संप्रदाय ने कपालिका संप्रदाय की भी कुछ प्रक्रियाओं को अपनाया है, इसमें बलि देने की भी परंपरा थी। हालांकि वक्त के साथ इसमें बदलाव जरूरी कर लिए गए हैंं। कपालिका संप्रदाय अब अस्तित्व में नहीं है। नागा परंपरा अखाड़ों से जुड़ी हुई है, जिसके जनक आदिगुरु शंकराचार्य हैं। जबकि, अघोरी साधकों के साथ ऐसा नहीं है।
अघोरी साधकों पर लिखी जा चुकी हैं कई किताबें
अघोरी का जीवन सामान्य तौर पर जहां शिव साधना को समर्पित रहता है। वहीं नागा साधुओं की तरह इनका भी सांसारिक जीवन से कोई नाता नहीं होता है। ये भी सांसारिक मोह त्यागकर वैराग्य के पथ पर आगे बढ़ते हैं। इस जीवन में प्रवेश की इच्छा के साथ ही ये अपने परिवार से नाता तोड़ लेते हैं। माना जाता है कि अधिकांश अघोरी तथाकथित छोटी जातियों से आते हैं। अघोरी प्राचीन युग में राजाओं के समय भी सक्रिय थे। युद्ध से लेकर तंत्र क्रियाओं के दौरान इनकी मदद ली जाती थी। अघोरी साधकों पर 'अघोरी: अ बायोग्राफिकल नॉवल' सहित कई किताबें भी लिखी जा चुकी हैं। इनमें एक बात निकलकर सामने आई है कि सच्चे अघोरी सरल स्वभाव के होते हैं। ये प्रकृति के बीच रहना पसंद करते हैं। साधना में ही इनका जीवन गुजरता है और इनकी फिल्मी पर्दे पर दिखाई जाने वाली जैसी कोई मांग नहीं होती है। जानवरों की बलि इनकी पूजा पद्धति का एक अहम अंग माना जाता है। लोगों को कई अघोरी गांजा जैसे नशीले पदार्थ का सेवन करते नजर आते हैं। लेकिन, ये नशा ऐसा नहीं होता, जिसमें से सुध बुध खो दें।
महाकुंभ में नजर आने वाला हर अघोरी वास्तविक साधक नहीं
जानकारों के अनुसार, वास्तविक रूप में अब अघोरी जो नजर आते हैं, उनमे से बेहद कम ही सही तरीके से अघोरी पद्धति का पालन कर रहे हैं। ये ठीक वैसा ही है, जैसे कि हर भगवा पहनने वाला साधु संत नहीं होता। महाकुंभ के दौरान भस्म से लिपटे रहने वाले जो अघोरी नजर आ रहे हैं वह अपनी वेशभूषा और बात करने के अंदाज के कारण लोकप्रिय हो रहे हैं। खासतौर से विदेश पर्यटकों के बीच इन्हें लेकर अलग आकर्षण होता है। इनकी जीवनशैली और पहनावा विदेशी धरती से आए लोगों को आकर्षित करता है।
इस शब्द से हुई अघोर की उत्पत्ति
देखा जाए तो अघोरी शब्द संस्कृत के 'अघोर' से बना है, जिसका अर्थ है, जो सरल और निर्भय हो। अघोरी साधक भगवान शिव के अनन्य भक्त होते हैं और अपनी साधना के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति का प्रयास करते हैं। अघोरी जीवन का पहला नियम है कि मन से सभी प्रकार की घृणा और भेदभाव को निकालना। इनकी साधना उन्हें हर परिस्थिति में सहज और निर्भय रहने की शिक्षा देती है। अघोरी साधुओं को लेकर आम धारणा है कि वे मृत मानव मांस का सेवन करते हैं। यहां तक की मल भी खाते हैं। हालांकि जानकारों के अनुसार, इसके पीछे का कारण बहुत गहन और सांकेतिक है। ऐसा कहा जाता है कि अघोरी हर उस चीज को अपनाते हैं, जिसे आम लोग त्याग या घृणा करते हैं। मृत मांस के सेवन के पीछ भी प्रतीकात्मक भाव होता है और हर अघोरी इसका पालन नहीं करता।
अघोरी साधु : लोक कल्याण की भावना, अवधूत दत्तात्रेय और अघोरी परंपरा
अघोरी साधुओं के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि वे केवल अपने स्वार्थ के लिए तंत्र-मंत्र करते हैं। लेकिन, सच्चाई इसके विपरीत है। अघोर विद्या का उद्देश्य व्यक्ति को ऐसा बनाना है जो सबके प्रति समान दृष्टिकोण रखे। ये साधु अपने ज्ञान और साधना का उपयोग लोक कल्याण के लिए करते हैं। अघोर पंथ के प्रणेता भगवान शिव माने जाते हैं। साथ ही अवधूत दत्तात्रेय को भी अघोरी परंपरा का गुरु माना जाता है। दत्तात्रेय, जिन्हें शिव, विष्णु और ब्रह्मा का अवतार कहा जाता है, अघोरी साधुओं के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। इनके अनुसार, जीवन और मृत्यु के रहस्यों को समझकर मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है। अघोरी साधु नरमुंडों की माला पहनते हैं और अपने साथ मानव खोपड़ी रखते हैं। ये खोपड़ी उनके लिए पूजा का पात्र होती है। इनके शरीर पर श्मशान की राख लगी होती है, जो यह दर्शाती है कि वे जीवन और मृत्यु के भेदभाव से परे हैं।
नागा साधुओं से अलग होते हैं अघोरी साधक
सामान्य लोग नागा साधुओं और अघोरी साधकों को एकसमान मानते हैं। लेकिन, हकीकत में दोनों के बीच बड़ा अंतर है। नागा साधु धर्म के रक्षक होते हैं और अपनी तपस्या के साथ समाज की सेवा करते हैं। वहीं, अघोरी साधकों का उद्देश्य शिव साधना ही होता है। इसके जरिए ही वह अपने मोक्ष का मार्ग तय करते हैं। नागा साधु ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, जबकि अघोरी साधुओं के साथ कहा जाता है कि उन पर ऐसी कोई बाध्यता नहीं होती। नागा साधु अपने अखाड़ों की पंरपरा का पालन करते हैं जबकि अघोरी अपनी साधना तक सीमित हैं। भारत और नेपाल में कुछ स्थान ऐसे हैं, जो अघोरी साधकों की साधना के लिए चर्चित हैं।
अघोरी साधु मुख्य रूप से तीन प्रकार की साधना करते हैं-
- शव साधना: इसमें शव को मांस और मदिरा का भोग लगाया जाता है।
- शिव साधना: शव पर खड़े होकर शिव की पूजा की जाती है।
- श्मशान साधना: हवन और मंत्र जाप श्मशान में किया जाता है।
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