इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्तियों में हिंदी के प्रति बढ़ती रुचि और समर्थन का एक नया आयाम सामने आया है। न्यायमूर्तियों ने हिंदी में आदेश देकर न्यायिक प्रणाली को आम जनता के करीब लाने का महत्वपूर्ण...
इलाहाबाद हाईकोर्ट : न्यायमूर्ति गौतम चौधरी ने बनाया अनोखा रिकॉर्ड, छह साल में 21 हजार से अधिक मामलों में हिंदी में सुनाया फैसला
Sep 13, 2024 12:49
Sep 13, 2024 12:49
न्यायमूर्ति गौतम चौधरी ने बनाया अनोखा रिकॉर्ड
हाईकोर्ट में हिंदी में बहस और फैसलों की प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है। जिससे इस संस्थान की एक विशेष पहचान बन रही है। हिंदी में कुछ महत्वपूर्ण फैसले दिए जाने से लोगों में उत्साह बढ़ा है। न्यायमूर्ति डॉ. गौतम चौधरी का छह वर्षों में 21,000 से अधिक फैसले हिंदी में देना एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, जबकि अन्य न्यायमूर्तियों के फैसलों को मिलाकर यह संख्या 30,000 से अधिक हो जाती है।
उच्च न्यायालय में निरंतर बढ़ रहा हिंदी का प्रयोग
17 मार्च 1866 से प्रदेशवासियों को न्याय प्रदान कर रहा इलाहाबाद उच्च न्यायालय अब हिंदी के प्रयोग में एक नई मिसाल पेश कर रहा है। इस दिशा में विशेष योगदान न्यायमूर्ति सौरभ श्याम शमशेरी, न्यायमूर्ति डॉ. गौतम चौधरी और न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव का है। इन न्यायाधीशों की प्राथमिकता है कि न्याय की प्रक्रिया को अधिक से अधिक समझने योग्य और सुलभ बनाया जाए, जिससे न्याय की पहुंच आम जनमानस तक आसान हो सके।
न्यायमूर्ति सौरभ श्याम शमशेरी का हिंदी के प्रति प्रेम
न्यायमूर्ति सौरभ श्याम शमशेरी ने हिंदी में निर्णय देने की परंपरा को एक नई दिशा दी है। उनके न्यायिक कार्यकाल में उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण फैसले हिंदी में दिए हैं। जिनमें 'पति पर पत्नी-संतानों के भरण-पोषण का वैधानिक व सामाजिक दायित्व' और 'फर्जी बीएड डिग्री वाले अध्यापकों की बर्खास्तगी' जैसे मामलों के निर्णय शामिल हैं। इन निर्णयों का हिंदी में होना न केवल क्षेत्रीय भाषाओं को मान्यता देता है, बल्कि न्याय की प्रक्रिया को आम जनता के लिए और भी पारदर्शी और सुलभ बनाता है। 12 दिसंबर 2019 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश बने न्यायमूर्ति डॉ. गौतम चौधरी और न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव ने भी हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इनके योगदान से उच्च न्यायालय में हिंदी में लिखे गए फैसलों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, जिससे यह साबित होता है कि न्याय की भाषा में भी बदलाव संभव है और यह बदलाव समाज के विभिन्न वर्गों के लिए एक स्वागत योग्य सुधार है।
हिंदी में निर्णय की परंपरा
भारत की न्यायपालिका में हिंदी भाषा के उपयोग की परंपरा धीरे-धीरे परिपक्व हो रही है। हिंदी के प्रति गहरी निष्ठा रखने वाले न्यायमूर्ति डॉ. गौतम ने अपने न्यायिक करियर में इस परंपरा को नई ऊँचाइयाँ दी हैं। अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा ग्रहण करने के बावजूद न्यायमूर्ति डॉ. गौतम का हिंदी के प्रति विशेष लगाव रहा है। उन्होंने अपनी न्यायिक सेवाओं के दौरान लगभग हजारों महत्वपूर्ण निर्णय हिंदी में दिए हैं। उनकी एक प्रमुख उपलब्धि वह निर्णय है जिसमें उन्होंने अभियुक्त को ठोस आधार के बिना हिरासत में लेने को मूल अधिकारों का उल्लंघन करार दिया। इस निर्णय ने भारतीय न्याय प्रणाली में न्याय के मूलभूत अधिकारों की रक्षा करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण मिसाल प्रस्तुत की। इसके साथ ही न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव भी हिंदी में अपनी न्यायिक गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध हैं। वे आठ हजार से अधिक निर्णय दे चुके हैं। जिनमें से कई अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इस वर्ष दिए गए उनके कुछ प्रमुख निर्णयों में विवाह के लिए जोर-जबरदस्ती से मतांतरण को गलत ठहराया गया है। राम के बिना भारत को अधूरा बताया गया है और समलैंगिक विवाह को असंवैधानिक करार दिया गया है। इन निर्णयों ने समाज और न्यायपालिका में महत्वपूर्ण चर्चाएँ उत्पन्न की हैं और भारतीय संविधान के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला है।
1980 से हिंदी में निर्णय देने की प्रवृत्ति
हिंदी ने न्यायपालिका के क्षेत्र में भी अपनी विशेष पहचान बनाई है। विशेषकर 1980 के दशक से हिंदी में निर्णय देने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है। जो भारतीय न्यायिक प्रणाली के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। 1980 के दशक में इलाहाबाद हाई कोर्ट में न्यायमूर्ति प्रेम शंकर गुप्त ने हिंदी में निर्णय देने की परंपरा को प्रारंभ किया। उन्होंने न्यायाधीश के रूप में अपने 15 वर्षीय कार्यकाल के दौरान चार हजार से अधिक निर्णय हिंदी में दिए। उनका यह कदम भारतीय न्यायपालिका में हिंदी के कामकाज को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण था। न्यायमूर्ति गुप्त की पहल ने हिंदी को न्यायिक प्रक्रिया में एक सम्मानजनक स्थान दिलाने में मदद की।
न्यायमूर्ति शंभूनाथ श्रीवास्तव का योगदान
न्यायमूर्ति शंभूनाथ श्रीवास्तव ने हिंदी में निर्णय देने की परंपरा को और भी बढ़ावा दिया। उन्होंने अपने कार्यकाल में हर सुबह 10 से 11 बजे तक सभी निर्णय हिंदी में देने का नियम अपनाया। इस प्रयास ने न्यायपालिका में हिंदी के उपयोग को नियमित और संस्थागत रूप से मान्यता दी। छत्तीसगढ़ के लोकायुक्त के रूप में न्यायमूर्ति ने आठ सौ से अधिक मुकदमों का निपटारा हिंदी में किया। उनकी इस पहल ने राज्य स्तर पर भी हिंदी को न्यायिक भाषा के रूप में स्थापित किया। इसके साथ ही उन्होंने 'क्या भारत में न्यायालयों की भाषा हिंदी व प्रादेशिक भाषा होनी चाहिए' शीर्षक से एक किताब भी लिखी, जिसमें उन्होंने न्यायालयों में हिंदी और अन्य प्रादेशिक भाषाओं के उपयोग पर विचार प्रस्तुत किया।
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