महाकुंभ के आकर्षण का एक बड़ा केंद्र दंडी स्वामियों का समूह और उनका विशेष स्थान दंडी बाड़ा है। दंडी शब्द का तात्पर्य है जंगल में बने सर्पीले रास्ते। जो संन्यासी व्यक्ति दंड लेकर यात्रा करता है, वह दंडी स्वामी कहलाता है।
महाकुंभ में संतों का निराला संसार : दंडी स्वामी कौन होते है, कैसे बनते हैं, चिता के बजाय लेते हैं समाधि, जानिए क्या है नियम
Jan 20, 2025 10:55
Jan 20, 2025 10:55
दंडी स्वामी का अर्थ
दंडी शब्द का तात्पर्य है जंगल में बने सर्पीले रास्ते। जो संन्यासी व्यक्ति दंड लेकर यात्रा करता है, वह दंडी स्वामी कहलाता है। दंड धारण करना इनकी परंपरा का अभिन्न हिस्सा है। शंकराचार्यों की महान परंपरा इन्हीं से निकली है। शंकराचार्य का चयन भी दंडी संन्यासियों में से ही किया जाता है। दंड धारण करने की प्रक्रिया में गुरु से दीक्षा लेना अनिवार्य होता है।
कैसे बनते हैं दंडी स्वामी?
रामधनी द्विवेदी के अनुसार, दंडी बनने के लिए कठोर नियमों का पालन करना पड़ता है। 12 वर्षों तक इन नियमों का पालन करने के बाद संन्यासी परमहंस की स्थिति प्राप्त करता है। मनुस्मृति और महाभारत जैसे धर्मग्रंथों में दंडी संन्यासियों के लिए विशेष नियम बताए गए हैं। प्राचीन काल में केवल ब्राह्मण को ही दंडी बनने की अनुमति थी, वह भी माता-पिता और पत्नी के न रहने पर।
दंडी का प्रतीकात्मक महत्व
दंड, ब्रह्मांड की सारी शक्तियों का प्रतीक होता है। इसे तैयार करने के लिए विशेष प्रक्रिया अपनाई जाती है। दंडी संन्यासी हर दिन दंड का अभिषेक और तर्पण करते हैं। यह भगवान विष्णु और उनकी शक्तियों का प्रतीक है। दंड की पवित्रता बनाए रखने के लिए इसे ढंका जाता है ताकि कोई अशुद्ध स्पर्श न हो।
दंड के प्रकार
सुदर्शन दंड : इसमें 6 गांठ होती हैं, जो सुदर्शन मंत्र का प्रतीक है।
नारायण दंड : 8 गांठ वाला यह दंड नारायण मंत्र का प्रतीक है।
गोपाल दंड : इसमें 10 गांठ होती हैं और यह गोपाल मंत्र पर आधारित है।
वासुदेव दंड : 12 गांठ वाला यह दंड वासुदेव मंत्र का प्रतीक है।
अनंत दंड : 14 गांठ वाला यह दंड अनंत का प्रतीक है।
दंडी संन्यासी की दिनचर्या
दंडी संन्यासी भिक्षा मांगकर भोजन करते हैं और दिन में केवल एक बार सूर्यास्त से पहले ही भोजन ग्रहण करते हैं। ऐशो-आराम की सभी चीजों का त्याग कर, वे ध्यान और साधना में लीन रहते हैं। वे सात घरों से अधिक भिक्षा नहीं मांगते और अगर कुछ नहीं मिलता, तो भूखे ही रहते हैं।
मूर्ति पूजा का परित्याग
दंडी संन्यासियों का जीवन पूरी तरह ब्रह्मचर्य और साधना पर आधारित होता है। वे मूर्ति पूजा नहीं करते। उनका मानना है कि ध्यान और आत्मसाधना से वे परमात्मा से सीधे जुड़ सकते हैं।
शास्त्रों में दंडी संन्यासियों का वर्णन
आश्रम : इनका प्रमुख मठ शारदा मठ है।
तीर्थ : ये आश्रम के नियमों का पालन करते हैं।
सरस्वती : ये श्रृंगेरी मठ के अनुयायी होते हैं।
दंडी संन्यासियों का नहीं होता अंतिम संस्कार
दंडी संन्यासियों की मृत्यु के बाद उन्हें समाधि दी जाती है। दीक्षा के दौरान ही उनके अंतिम संस्कार की प्रक्रिया पूरी मानी जाती है। यह माना जाता है कि वे मोक्ष प्राप्त कर चुके होते हैं, इसलिए उन्हें जलाया नहीं जाता।
महाकुंभ में दंडी स्वामी का महत्व
महाकुंभ में दंडी स्वामी को नारायण का अवतार माना जाता है। कहा जाता है कि दंडी स्वामी के दर्शन मात्र से नारायण का आशीर्वाद प्राप्त होता है। महाकुंभ में दंडी बाड़ा के बिना स्नान और जप-तप अधूरा माना जाता है।
दंडी स्वामी की परंपरा
दंडी स्वामी में केवल ब्राह्मण दंडी संन्यासियों को प्रवेश की अनुमति होती है। वे न तो खुद अन्न बनाते हैं और न ही बिना निमंत्रण के भोजन ग्रहण करते हैं। किसी ब्राह्मण या संत द्वारा बुलाए जाने पर ही वे भोजन करते हैं। माना जाता है कि इन पर मां लक्ष्मी का आशीर्वाद होता है।
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