MONDAY UPT SPECIAL : मिशन 2024 के लिए बिछ गई बिसात, अखिलेश के पीडीए जवाब में क्या है भाजपा की सीक्रेट सोशल इंजीनियरिंग....

मिशन 2024 के लिए बिछ गई बिसात, अखिलेश के पीडीए जवाब में क्या है भाजपा की सीक्रेट सोशल इंजीनियरिंग....
UPT | अखिलेश के पीडीए जवाब में क्या है भाजपा की सीक्रेट सोशल इंजीनियरिंग

Feb 19, 2024 08:27

अखिलेश ने पीडीए फॉर्मूले ने भाजपा के रणनीतिकारों की पेशानी पर बल दे दिया है तो कांग्रेस भी अपना खोया जनाधार वापस पाने की कोशिश में लगी है। उधर चुनाव से पहले भाजपा सीक्रेट सोशल इंजीनियरिंग में जुटी हुई है।

Feb 19, 2024 08:27

Short Highlights
  • मिशन 2024 के लिए पार्टियों ने कसी कमर
  • चुनाव में पीडीए बनाम एनडीए की होगी लड़ाई
  • खोया जनाधार वापस पाने की कोशिश करेगी कांग्रेस
Lucknow/Noida (पंकज विशेष) : चुनाव की आहट है और मिशन 2024 के लिए सियासी बिसात बिछ गई है। सियासत के सूरमा जानते और मानते हैं कि दिल्ली दरबार का रास्ता इस बार भी यूपी की 80 सीटों से होकर ही जाएगा। अखिलेश ने पीडीए फॉर्मूला (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) देकर भाजपा के रणनीतिकारों की पेशानी पर बल दे दिया है तो अपना खोया जनाधार लौट आने की चाह में कांग्रेस भी अपने अगुवा राहुल गांधी के साथ मोदी के गढ़ में कूदती दिख रही है। मायावती हों, चाहें चौधरी जयंत, स्वामी प्रसाद मौर्य हों या ओम प्रकाश राजभर.... अपने जातीय जनाधार के सहारे बयानों का किला गढ़ रहे हैं। दूसरी ओर, केंद्र और राज्य की सत्ता पर काबिज भाजपा ने भी अपनी सीक्रेट सोशल इंजीनियरिंग शुरू कर दी है। 

क्या है पीडीए, कितना असर डालेगा
आइए पहले जानते हैं ये पीडीए फॉर्मूला कहां से आया। सपा मुखिया अखिलेश यादव ने जून 2023 में पहली बार पीडीए शब्द का जिक्र किया था। तब उन्होंने कहा था कि पीडीए एनडीए को हराएगा। पीडीए का मतलब है- पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक। यूपी में मुस्लिम और यादव सपा के कोर वोटर माने जाते हैं। दोनों मिलकर यूपी की कई सीटों का रिजल्ट प्रभावित करते हैं। लेकिन.... साल 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा को सिर्फ पांच और 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा से गठबंधन के बाद भी इतनी ही सीटें हासिल हुईं। फिर साल 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा को सिर्फ 47 सीट मिल सकीं। हालांकि साल 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा का ग्राफ जरूर कुछ चढ़ा, लेकिन उसे 111 सीट पर संतोष करना पड़ा।

यूपी की नब्ज क्या कहती है?
उत्तर प्रदेश के जातीय समीकरण बड़े पेचीदा हैं, जिसमें राजनीति के बड़े-बड़े धुरंधर मात खा जाते हैं। पीडीए कोई पहला प्रयोग नहीं है। कांग्रेस भी एक जमाने में ऐसे ही सोशल फैक्टर से सत्ता के घोड़े पर सवार थी। मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग की तो यूपी की मुख्यमंत्री बनीं। भाजपा ने अगड़ों से पिछड़ों तक का समीकरण बैठाकर यूपी में फिर पैर जमाए। और समाजवादी पार्टी... पहले मुलायम सिंह ने अमर से लेकर आजम तक साथ जोड़े और अब अखिलेश पीडीए की बात कर रहे हैं। पिछले दिनों अखिलेश ने क्या ट्वीट किया था, पहले ये जान लेते हैं....
तो क्या जाति फैक्टर इतना मजबूत है?
निश्चित रूप से, जाति फैक्टर चुनाव में मजबूत दखल रखता है। दलों के गठबंधन से लेकर टिकट तय करने तक। हमेशा हर जाति विशेष को उसके वोट प्रतिशत के आधार पर ही राजनीतिक दल अपनी  तरफ खींचने की भरपूर कोशिश करते रहे हैं। यूपी की सियासत के दो चैप्टर हैं। मंडल कमीशन से पहले और इसके बाद। साल 1990 से पहले के लोकसभा और विधानसभा चुनावों पर राजपूत और ब्राह्मण जातियों का खासा प्रभाव था। आजादी से लेकर साल 1990 तक प्रदेश में आठ ब्राह्मण और तीन राजपूत मुख्यमंत्री बने। मंडल कमीशन 1980 में आया और 1990 से प्रभावी हुआ। तब से तो जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी का फॉर्मूला चल निकला। यहीं से यूपी की सियासत में पिछड़ों और दलित वोटरों का दबदबा बढ़ा। 
 
जानिए यूपी के जातिवार आंकड़े
उत्तर प्रदेश में 22 साल पहले ओबीसी की आबादी 54.05 फीसदी मिली थी। तब भाजपा की राजनाथ सिंह सरकार ने सामाजिक न्याय समिति से यह सर्वे कराया था। इस सरकार के संसदीय कार्यमंत्री हुकुम सिंह की अध्यक्षता में 28 जून 2001 को सामाजिक न्याय समिति का गठन किया गया। तत्कालीन स्वास्थ्य एवं चिकित्सा मंत्री रमापति शास्त्री समिति के सह अध्यक्ष और विधान परिषद सदस्य दयाराम पाल सदस्य थे। समिति ने परिवार रजिस्टर के आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए रिपोर्ट दी।
हुकुम सिंह समिति ने यूपी में सामान्य वर्ग की आबादी को अन्य वर्गों की ग्रामीण जनसंख्या की श्रेणी में रखते हुए 20.95 फीसदी बताया था। ग्रामीण जनसंख्या पर आधारित इस आकलन में अनुसूचित जाति की आबादी 29.94 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति की आबादी 0.06 प्रतिशत बताई गई थी। हुकुम सिंह कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि यूपी में पिछड़ों में सर्वाधिक 19.40 प्रतिशत आबादी यादवों की है। जनसंख्या के लिहाज से पिछड़ों में यादवों के बाद कुर्मी, लोध, गड़ेरिया, मल्लाह-निषाद, तेली, जाट, कुम्हार, कहार-कश्यप, कुशवाहा-शाक्य, हज्जाम-नाई, भर-राजभर, बढ़ई, लोनिया-नोनिया, मौर्य, फकीर, लोहार, गुर्जरों का नंबर इसी घटते क्रम में बताया गया था। कुछ साल पहले योगी आदित्यनाथ-1 सरकार ने भी अति पिछड़ों को ओबीसी आरक्षण के भीतर आरक्षण के लिए जस्टिस राघवेंद्र कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट राज्य सरकार को दे दी थी, जिसे कभी सार्वजनिक नहीं किया गया। 
 
तो क्या भाजपा को दलितों के वोट नहीं मिलते 
यूपी में हर बार चुनाव से पहले हर दल और नेता कोई खुद को दलित हितैषी दिखाने की कोशिश में जुट जाते हैं। प्रदेश के कुल मतदाताओं में करीब 20 फीसदी दलित हैं। सियासी गलियारों में मिथक है कि दलित भाजपा को वोट नहीं करते, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि 2014 की मोदी लहर में राष्ट्रीय स्तर पर दलितों का सबसे ज्यादा वोट भाजपा को मिला था। कुल वोट का करीब एक चौथाई। तब से भाजपा चुनाव दर चुनाव इसे बढ़ाने की जुगत में लगी रही है और विपक्षी दल अपना किला बचाने में। यानी सबकी अपनी-अपनी सोशल इंजीनियरिंग है और कोर वोटर के हिसाब से अलग रणनीति।

अब जानिए भाजपा की सीक्रेट सोशल इंजीनियरिंग
पुरानी कहावत है- लोहा ही लोहे को काटता है। भाजपा ने भी पीडीए के जवाब में सीक्रेट सोशल इंजीनियरिंग शुरू कर दी है। इसके मुख्यत: तीन पहलू हैं- चेहरा, मोहरा और बिसात।

सबसे पहले बिसात की बात करते हैं। यूपी में जाति-धर्म-संप्रदाय के नाम पर सबसे ज्यादा उद्वेलित होने और रहने वाले पश्चिमांचल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली करवाकर भाजपा बिसात बिछा चुकी है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी आए दिन अलग-अलग जिलों में दौरे कर सक्रियता बढ़ा चुके हैं। हालांकि कांग्रेस नेता न्याय यात्रा और सपा नेता पीडीए सम्मेलन के जरिए भरपाई करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके अलावा भी भाजपा अपनी खास रणनीति के तहत काम कर रही है। एक तरफ इंडिया गठबंधन में शामिल पार्टियों को तोड़कर एनडीए का हिस्सा बना रही है। इसमें आरएलडी चीफ जयंत चौधरी का नाम सबसे ऊपर है। वहीं, दूसरी तरफ इंडिया गठबंधन के शीर्ष नेताओं को पार्टी में शामिल करने पर जोर है।

अब साफ है कि चेहरा कौन होगा...! पिछले दिनों दिल्ली में भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कार्यकर्ताओं के लिए 400 सीट जीतने का बड़ा लक्ष्य रखा। साथ ही साफ कह दिया कि हर सीट पर कमल का फूल ही प्रत्याशी है। संकेत साफ हैं कि लगातार तीसरी जीत की मंशा से चुनाव मैदान में जा रही भाजपा बड़ी संख्या में टिकट काटेगी। इससे कोई नुकसान न हो, इसके लिए भाजपा अंदरूनी सर्वे भी करा रही है और जमीनी मजबूती के लिए प्रत्याशी कार्यालय की बजाय पहली बार हर लोकसभा क्षेत्र में पार्टी चुनाव कार्यालय खोल रही है।

मोहरा...। ये भाजपा की रणनीति का सबसे अहम पहलू है। यूपी में समाजवादी पार्टी को घेरने के लिए भाजपा ने खास प्लान तैयार किया है। सपा के यादव वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए भाजपा एमपी के मुख्यमंत्री मोहन यादव को स्टार प्रचारक के रूप में उतार सकती है। यूपी की यादव बाहुल सीटों पर मोहन यादव से रैली और सभाएं कराए जाने का प्लान बनाया जा रहा है। इसके अलावा यूपी में भाजपा के पास डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य के रूप में पिछड़े समुदाय से आने वाला बड़ा नेता है। उन्होंने हाल में अखिलेश के पीडीए को पर्सनल डेवलपमेंट अथॉरिटी कह कर खारिज किया था। 

तो क्या यादव वोट बैंक पर भी भाजपा की नजर 
यूपी में यादव वोट बैंक लगभग 10% है। ये सपा का कोर वोटर माना जाता है। यूपी की कन्नौज, इटावा, मैनपुरी, फिरोजाबाद, आजमगढ़ जैसी सीटों पर समाजवादी पार्टी मजबूत मानी जाती है। इसके साथ ही इन्हीं सीटों पर सबसे ज्यादा यादव वोटर भी है। अब इन्हीं सीटों पर भाजपा सपा को घेरने की कोशिश कर रही है। एमपी के सीएम मोहन यादव की यूपी में दखलंदाजी से समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के माथे पर शिकन साफ देखी जा सकती है। मोहन यादव को जब मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया, तब शिवपाल सिंह यादव ने बयान दिया था कि मोहन यादव मध्य प्रदेश संभालेंगे और अखिलेश यादव यूपी संभालेंगे। लेकिन आने वाले दिनों में मोहन यादव सपा की मुश्किलें बढ़ाने का काम करेंगे।

जानकारों की राय : अभी चुनाव हो जाए तो क्या होगा
यूपी की राजनीति पर बारीकी से नजर रखने वाले दलित-राजनीतिक चिंतक डॉ. सतीश कहते हैं कि ओबीसी वोटर इस बार भी दिल्ली की कुर्सी दिलाने में अहम होगा। सभी दल इसे बेहतर ढंग से समझ रहे हैं और रणनीति बना रहे हैं। मायावती के साथ हुए गेस्ट हाउस कांड के जख्म आज भी दलितों के दिल में हैं। उनका मानना है कि दलित भाजपा की तरफ तो जा सकता है लेकिन सपा को कभी वोट नहीं करेगा। अखिलेश यादव भले ही पीडीए का दावा कर रहे हैं लेकिन दलित वोटबैंक एकतरफा सपा की तरफ टर्नआउट होगा, इसकी संभावना कम है।

भाजपा से राज्यसभा सांसद और पूर्व प्रदेशाध्यक्ष डॉ. लक्ष्मीकांत वाजपेयी का कहना है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में जब मायावती और अखिलेश यादव ने हाथ मिलाया था तो उसमें बसपा को फायदा हुआ। लेकिन बसपा अपना वोट सपा के खाते में ट्रांसफर नहीं करवा पाई। 2019 में जहां बसपा जीरो से दस पर पहुंची थी वहीं सपा पांच पर सिमट गई थी। अब जबकि मायावती ने अकेले चुनाव लड़ने की रणनीति बनाई है, तो ऐसे में दलित वोटरों को सपा अपनी ओर खींच पाएगी, ये कहना मुश्किल है। रालोद के एनडीए के साथ आने से भाजपा को पश्चिम यूपी में मजबूती मिलेगी। उनका कहना है कि 2014 के बाद से हुए चुनावों में भाजपा की पिछड़े और दलित मतदाताओं पर पकड़ मजबूत हुई है। 

समाजवादी पार्टी के किठौर क्षेत्र से विधायक शाहिद मंजूर का कहना है कि भाजपा अब कब तक मंदिर और मस्जिद के अलावा हिंदुत्व के सहारे वोटों की राजनीति करेगी। विधायक शाहिद मंजूर का कहना है कि पिछड़े,दलित और अल्पसंख्यक मतदाता सपा के पाले में आए तो ये भाजपा के लिए काफी नुकसानदायक होगा। समाजवादी पार्टी के सरधना से विधायक अतुल प्रधान का कहना है कि सहारनपुर से लेकर लखनऊ और वाराणसी तक पीडीए को मजबूत करने का काम किया जा रहा है। पश्चिम यूपी में जिन विधानसभाओं में पिछड़े, दलित और अतिपिछड़े मतदाताओं की संख्या अधिक है, उन पर गांव-गांव जाकर सपा कार्यकर्ता काम कर रहे हैं।

ग्राउंड रिपोर्ट : अब पढ़िए, प्रदेश के अलग-अलग पॉकेट में अभी क्या हाल 

पश्चिम यूपी 
बदले राजनैतिक माहौल के बाद समाजवादी पार्टी ने भी अपनी रणनीति में बदलाव किया है। अपने इसी नए बदलाव के साथ सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव लोकसभा चुनाव के लिए मैदान में उतरने की तैयारी कर रहे हैं। लोकसभा चुनाव में भाजपा को यूपी में मात देने के लिए पीडीए यानी पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यकों के समीकरण के साथ उतरने की तैयारी में हैं। सपा की नजर पीडीए वोटरों पर है। पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का ये दांव लोकसभा चुनाव के फ्रेम में फिट बैठा तो भाजपा को लिए पश्चिम यूपी में कुछ नुकसान उठाना पड़ सकता है। खासकर मुजफ्फरनगर, मेरठ, बागपत और सहारनपुर लोकसभा सीट पर। मतदाताओं के परिदृश्य से पश्चिम यूपी के इन सभी जिलों में पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक मतदाताओं की संख्या अधिक है। भाजपा ने पश्चिम यूपी की सभी 18 सीटों पर गांव चलो और वॉल राइटिंग अभियान चलाया हुआ है। 

रुहेलखंड
अखिलेश यादव का पीडीए दांव चलने के बाद भाजपा के खेमे में भी सुगबुगाहट बढ़ी है। पार्टी नेता टिकट बंटवारे पर कुछ भी बोलने से बच रहे हैं। लेकिन इसका असर प्रत्याशियों के चयन पर पड़ना तय माना जा रहा है। सपा के पीडीए फार्मूले के चलते बरेली मंडल की बरेली, आंवला, और बदायूं लोकसभा सीटों पर पुराने प्रत्याशियों को ही टिकट दिया जा सकता है। बरेली सीट पर पूर्व कैबिनेट मंत्री संतोष कुमार गंगवार, आंवला में सांसद धर्मेन्द्र कश्यप और बदायूं में संघमित्रा मौर्य ही भारी विरोध के बावजूद फिर भाजपा प्रत्याशी बन जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं।

कानपुर-बुंदेलखंड 
पूरे उत्तर प्रदेश में यह इलाका भाजपा का सबसे मजबूत किला है। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने कानपुर-बुंदेलखंड की 10 में से 10 सीटों पर कमल खिलाया था। इसमें कन्नौज और इटावा की लोकसभा सीटें भी शामिल थीं। तब कथित बुआ और बबुआ की जोड़ी इस किले को भेद नहीं पाई थी। वहीं, साल 2022 के विधानसभा चुनाव में भी कानपुर-बुंदेलखंड की 52 विधानसभा सीटों में से 41 सीटों पर भाजपा के प्रत्याशी जीते। इस बार यहां की 10 लोकसभा सीटों में इंडिया गठबंधन के तहत कांग्रेस कानपुर, जालौन और झांसी लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ सकती है और बाकी सीटों पर सपा दावा ठोक रही है।

अवध 
सियासी जानकार कहते हैं कि भाजपा ने सत्ता बचाने की चाबी अयोध्या में खोज ली है। इसे दबी जुबान से सभी दलों के नेता स्वीकार करते हैं कि राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के भव्य आयोजन से भाजपा के पक्ष में माहौल बना है। लोकसभा चुनाव में मिशन 80 को पाने के लिए बड़े जिलों में अनुभवी पदाधिकारियों, पूर्व मंत्रियों और जनप्रतिनिधियों को प्रभार सौंपा गया है। अवध क्षेत्र में लखनऊ महानगर और जिला में प्रदेश उपाध्यक्ष त्रयंबक त्रिपाठी को प्रभारी नियुक्त किया गया है। रायबरेली की जिम्मेदारी गोंडा के पूर्व जिलाध्यक्ष पीयूष मिश्रा को दी गई है। इसी तरह अयोध्या महानगर में विजय प्रताप सिंह, अयोध्या जिला में मिथलेश त्रिपाठी को प्रभारी बनाया गया है। यानी चुनाव घोषित होने से पहले ही भाजपा ने बिगुल फूंक दिया है।

पूर्वांचल
योगी और मोदी के प्रभाव वाले इस अतिमहत्वपूर्ण इलाके में ओबीसी वोटर प्रभावी भूमिका में है। पिछड़े वोट बैंक को लेकर यहीं सबसे ज्यादा प्रतिस्पर्धा है। यहां ओमप्रकाश राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य, अनुप्रिया पटेल से लेकर यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य तक सियासी दांव चलते हैं। बात गाजीपुर जनपद की करें तो यह समाजवादियों का गढ़ रहा है। यहां पीडीए के साथ ही पिछड़ा कार्ड खूब फलता-फूलता रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव की बात करें तो भाजपा के सारे दावे फ्लॉप साबित हुए थे। इस बार भाजपा जरूर फूंक-फूंककर कदम उठा रही है। बलिया में समाजवादी पार्टी के पीडीए (पिछड़ा, दलित एवं अल्पसंख्यक) वोट बैंक के जरिए किला फतह की तैयारी खटाई में है। भाजपा ने इसका काट निकालते हुए जनपद में पार्टी का जिलाध्यक्ष सिकंदरपुर विधानसभा के पूर्व विधायक संजय यादव को नियुक्त किया है। इसी तरह यादव परिवार के प्रभाव वाले आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र से पिछली बार भोजपुरी स्टार दिनेश लाल यादव 'निरहुआ' ने सपा के गढ़ में जीत का परचम लहराया। इस बार भी सत्ता पक्ष का प्रयास है कि सपा के गढ़ को हर हाल में भेदा जाए।

(इनपुट : वेस्ट यूपी से उत्तर प्रदेश संवाददाता केपी त्रिपाठी, रुहेलखंड से साजिद रजा खान, अवध से अरुण पाठक, कानपुर-बुंदेलखंड से सुमित शर्मा, पूर्वी उत्तर प्रदेश से अखिलानंद तिवारी)

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