बांग्लादेश में हालात बिगड़ने और हिंसा भड़कने के कारण प्रधानमंत्री शेख हसीना ने इस्तीफा दे दिया है। हिंसा के कारण बांग्लादेश में 100 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं...
शेख हसीना गाजियाबाद पहुंचीं : बांग्लादेश में जब भी आफत में घिरीं, भारत ने बढ़ाया मदद का हाथ
Aug 05, 2024 19:04
Aug 05, 2024 19:04
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तख्तापलट में गई थी शेख मुजीब की जान
15 अगस्त 1975 को बांग्लादेश में तख्तापलट के दौरान बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर रहमान और उनके परिवार की हत्या कर दी गई। इस समय शेख हसीना जर्मनी में थीं, जहां उनके पति परमाणु वैज्ञानिक के रूप में काम कर रहे थे। हत्या के बाद शेख हसीना और उनकी बहन रेहाना को दिल्ली की ओर जाने के लिए मजबूर किया गया। यह समय उनके जीवन का एक बेहद कठिन और डरावना दौर था।
विद्रोह के बाद जर्मनी में इमरजेंसी
15 अगस्त 1975 की सुबह, शेख हसीना और उनकी बहन रेहाना ब्रसेल्स में बांग्लादेश के राजदूत सनाउल हक के घर ठहरे हुए थे। अचानक, राजदूत सनाउल हक के फोन की घंटी बजी, जिसमें बताया गया कि बांग्लादेश में सैनिक विद्रोह हो गया है। शेख हसीना को तुरंत जर्मनी लौटने के लिए कहा गया, लेकिन जैसे ही राजदूत को पता चला कि विद्रोह में शेख मुजीब की हत्या कर दी गई है, उन्होंने शेख हसीना और उनके परिवार को कोई भी मदद देने से इंकार कर दिया। यहां तक कि उन्हें जर्मनी छोड़ने के लिए भी मजबूर किया गया। इस स्थिति में शेख हसीना और उनकी बहन को जर्मनी में बांग्लादेश के राजदूत हुमायू रशीद चौधरी की मदद से वहां से निकाला गया। हालात को देखते हुए, यूगोस्लाविया के दौरे पर आए बांग्लादेश के विदेश मंत्री डॉ. कमाल हुसैन भी वहां पहुंचे, लेकिन शेख हसीना और उनकी बहन इतने सदमे में थीं कि उन्होंने मीडिया या अन्य लोगों से बात नहीं की।
कैसे भारत में मिली शरण
भारत में शरण की तलाश में, हुमायू रशीद चौधरी ने इंदिरा गांधी के दफ्तर को फोन किया। हालांकि उन्हें उम्मीद नहीं थी कि कॉल सीधे इंदिरा गांधी तक पहुंचेगी, लेकिन यह चौंकाने वाला था जब इंदिरा गांधी ने खुद कॉल रिसीव की। उन्होंने शेख हसीना और उनकी बहन को राजनीतिक शरण देने का तत्काल आश्वासन दिया। 24 अगस्त 1975 को, एयर इंडिया के विमान से शेख हसीना और उनका परिवार दिल्ली के पालम हवाई अड्डे पर पहुंचे। वहां कैबिनेट के एक संयुक्त सचिव ने उन्हें रिसीव किया।
इंदिरा गांधी ने की शेख हसीना की मदद
दिल्ली पहुंचने के बाद, शेख हसीना और उनका परिवार पहले रॉ (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) के सेफ हाउस में भेजे गए, और फिर डिफेंस कॉलोनी के एक घर में सुरक्षित रूप से स्थानांतरित किए गए। इस कठिन दौर में, भारत ने न केवल शेख हसीना की सुरक्षा सुनिश्चित की, बल्कि उन्हें और उनके परिवार को एक नया सुरक्षित ठिकाना प्रदान किया।
1975 के बाद फिर भारत की मदद ने शेख हसीना को बचाया
फरवरी 2009 में बांग्लादेश राइफल्स (BDR) ने एक विद्रोह शुरू कर दिया था, जिससे बांग्लादेश के सैन्य इतिहास में सबसे बड़े नरसंहारों में से एक हुआ। इस दौरान बड़ी संख्या में वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों और उनके परिवारों की हत्या कर दी गई। शेख हसीना तब दो महीने पहले ही देश की प्रधानमंत्री बनी थीं और रक्षा विभाग भी उनके पास था। जब विद्रोह भड़क गया, तो हसीना ने भारत से मदद की गुहार लगाई। भारत ने तत्काल उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाए, और उनकी कुर्सी बचाने में भूमिका निभाई।
भारत ने जब बचाई शेख हसीना की कुर्सी
विद्रोह की गंभीरता को देखते हुए, शेख हसीना ने भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी से संपर्क किया। मुखर्जी ने उनकी मदद का आश्वासन दिया और विदेश सचिव शिवशंकर मेनन ने अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और चीन से बात करके शेख हसीना की स्थिति पर चर्चा की। भारत ने पैराशूट रेजिमेंट की 6वीं बटालियन को तैयार किया और बांग्लादेश में संभावित सैन्य हस्तक्षेप के लिए भारतीय सैनिकों को तैयार किया। ढाका एयरपोर्ट और शेख हसीना की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भारतीय जवानों को तैनात किया गया।
क्या है 2009 का विद्रोह
फरवरी 2009 के अंत में, बांग्लादेश राइफल्स (BDR) अपने वार्षिक समारोह की तैयारी कर रहा था, जिसे "BDR सप्ताह" के रूप में जाना जाता है। इस अवसर पर उच्च रैंकिंग वाले सैन्य अधिकारी और जवान मिलते थे, परेड करते थे और हथियारों का प्रदर्शन करते थे। 24 फरवरी को, शेख हसीना इस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए पहुंचीं। हालांकि, 25 फरवरी को पिलखाना मुख्यालय में आयोजित दरबार समारोह के दौरान, बीडीआर के जवानों ने हथियारों से लैस होकर विद्रोह शुरू कर दिया।
दरबार समारोह में जब बीडीआर के महानिदेशक ने जवानों से उनकी शिकायतों के बारे में बात करना शुरू किया, तो एक जवान ने अचानक अपनी बंदूक उठा ली और वरिष्ठ अधिकारियों पर तान दी। इसके बाद, अन्य हथियारबंद जवानों ने भी ऐसा ही किया। इस दौरान हॉल और बैरकों में हत्या की लहर शुरू हो गई, जिसमें वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों को बंधक बना लिया गया या गोली मार दी गई। विद्रोह के दौरान 74 लोगों की मौत हो गई, जिनमें 57 सैन्य अधिकारी शामिल थे। इसमें बीडीआर के महानिदेशक शकील अहमद और उनकी पत्नी तथा कुछ अन्य नागरिक भी शामिल थे।
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