कुंभ के स्थान से होती है नागा साधुओं की पहचान : जानें खूनी-बर्फानी और खिचड़िया नामों के पीछे की वजह और परंपरा

जानें खूनी-बर्फानी और खिचड़िया नामों के पीछे की वजह और परंपरा
UPT | Mahakumbh 2025

Jan 11, 2025 01:33

धर्मशास्त्रों के अनुसार, उज्जैन से दीक्षा लेने वाले नागा साधुओं को खूनी नागा बाबा कहा जाता है। मान्यता है कि उज्जैन के नागा साधु अपेक्षाकृत गर्म स्वभाव के होते हैं, इसलिए यहां के नागा साधुओं को खूनी नागा बाबा का नाम दिया गया है।

Jan 11, 2025 01:33

Prayagraj News : महाकुंभ का भव्य आयोजन पूरी दुनिया को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। पौष पूर्णिमा पर 13 जनवरी को पहले प्रमुख स्नान पर्व पर करोड़ों श्रद्धालुओं के पुण्य की डुबकी लगाने के लिए पहुंचने का अनुमान है। इस बीच देश विदेश में महाकुंभ में आए नागा साधुओं की बड़ी चर्चा है। इनमें बड़ी संख्या में महिला नागा साधु भी हैं। नागा साधु सामान्य तौर पर लोगों को नजर नहीं आते हैं। केवल कुंभ के दौरान श्रद्धालुओं को इन्हें बेहद करीब से देखने को और जानने-समझने का अवसर मिलता है। इस भव्य आयोजन की खासियत यहां से निकलने वाले नागा साधु भी होते हैं, जिन्हें अलग-अलग स्थानों की वजह से अलग-अलग नामों से जाना जाता है, जो इनकी विशिष्ट पहचान होती है। 

कुंभ के स्थान से होती है नागा साधुओं की पहचान
धर्मशास्त्रों के अनुसार, प्रयागराज के कुंभ में दीक्ष लेने वालों को सामान्य भाषा में नागा साधु कहा जाता है। वहीं उज्जैन से दीक्षा लेने वाले नागा साधुओं को खूनी नागा बाबा कहा जाता है। मान्यता है कि उज्जैन के नागा साधु अपेक्षाकृत गर्म स्वभाव के होते हैं, इसलिए यहां के नागा साधुओं को खूनी नागा बाबा का नाम दिया गया है। इसी तरह नासिक में दीक्षा पाने वाले नागा साधु को खिचड़िया कहकर पुकारा जाता है। नासिक के नागा साधुओं का प्रसाद खिचड़ी होेता है। इसलिए इन्हें इस नाम से पहचाना जाता है। हरिद्वार में दीक्षा लेने वाले नागा साधु बर्फानी कहलाते हैं। दरअसल हरिद्वार देवभूमि उत्तराखंड में पड़ता है। उत्तराखंड हिमालयी प्रदेश हैं। यहां बर्फ गिरती है और यहां के लोग शांत प्रवृत्ति के माने जाते हैं। इसलिए जिन लोगों को कड़ी तपस्या के बाद हरिद्वार के कुंभ में नागा साधु की दीक्षा दी जाती है, उन्हें बर्फानी कहा जाता है।



नागा साधुओं के प्रकार और उनकी पहचान
नागा साधुओं को उनके दीक्षा स्थलों के आधार पर चार मुख्य प्रकारों में बांटा गया है-
  • प्रयागराज के नागा साधु : इन्हें केवल 'नागा साधु' कहा जाता है।
  • उज्जैन के खूनी नागा : इन्हें कठोर तपस्या और दृढ़ता के लिए जाना जाता है।
  • हरिद्वार के बर्फानी नागा : ये ठंडे स्थानों में साधना करने के लिए प्रसिद्ध हैं।
  • नासिक के खिचड़िया नागा : इनकी विशेष परंपराओं के कारण इन्हें यह नाम दिया गया।
शास्त्र के साथ शस्त्र ज्ञान की जरूरत महसूस होने पर शुरू हुई नागा साधुओं की परंपरा
दरअसल नागा साधु भारतीय सनातन धर्म के अजेय योद्धा और धार्मिक परंपरा के सशक्त प्रतीक हैं। इनका अस्तित्व धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए समर्पित है। इनकी परंपरा की नींव जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने रखी थी। धर्माचार्यों के अनुसार, शंकराचार्य ने यह महसूस किया कि धर्म की रक्षा के लिए केवल शास्त्र ज्ञान पर्याप्त नहीं है, इसके साथ शस्त्र का ज्ञान भी आवश्यक है। इसी उद्देश्य से नागा साधुओं की परंपरा का जन्म हुआ।

आदि शंकराचार्य और नागा साधुओं की उत्पत्ति
कहा जाता है कि आठवीं शताब्दी में भारत तांत्रिकों और विदेशी आक्रमणों से प्रभावित था। उस समय, आदि गुरु शंकराचार्य ने हिंदू धर्म को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने न केवल धार्मिक ग्रंथों का प्रचार-प्रसार किया, बल्कि युवा साधुओं को शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण भी दिया। इन साधुओं को नागा संन्यासी नाम दिया गया। ये योद्धा साधु धर्म और समाज की रक्षा के लिए समर्पित थे और उन्होंने कई युद्धों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

नागा साधुओं का धर्म और समाज के प्रति योगदान
इतिहास के पन्नों में नागा साधुओं का योगदान स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया है। इन्होंने प्राचीन मंदिरों की रक्षा की और विदेशी आक्रमणकारियों का डटकर सामना किया। जब आक्रमणकारियों ने मंदिरों को नष्ट करने और महिलाओं का अपमान करने की कोशिश की, तब नागा साधुओं ने अपने शस्त्रों से उन्हें करारा जवाब दिया। नागा साधुओं ने न केवल धर्म, बल्कि समाज की रक्षा के लिए भी अपने प्राणों की आहुति दी। वे आज भी अपनी परंपरा और कर्तव्यों का पालन करते हुए समाज को सत्य और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं।

नागा साधु बनने की कठिन प्रक्रिया
  • ब्रह्मचर्य का पालन : नागा साधु बनने के लिए इच्छुक व्यक्ति को पहले 6-12 वर्षों तक ब्रह्मचर्य और कठोर तपस्या का पालन करना होता है।
  • सांसारिक जीवन का त्याग : इच्छुक व्यक्ति को अपने परिवार, संपत्ति और भौतिक सुख-सुविधाओं का पूर्ण त्याग करना होता है।
  • पिंडदान : नागा साधु बनने की प्रक्रिया में व्यक्ति को अपने जीवित रहते हुए पिंडदान करना होता है, जो यह दर्शाता है कि अब उनका सांसारिक जीवन समाप्त हो गया है।
  • गुरु की स्वीकृति : गुरु की स्वीकृति के बाद व्यक्ति नागा साधु बनने के लिए दीक्षित होता है। इसमें साधना, तपस्या और आध्यात्मिक ज्ञान की कड़ी परीक्षा होती है।
नागा साधुओं की रहस्यमयी जीवनशैली
  • निर्वस्त्र जीवन और भस्म का लेप : नागा साधु निर्वस्त्र रहते हैं और अपने शरीर पर भस्म का लेप करते हैं। यह उनके वैराग्य और भौतिक इच्छाओं से मुक्त होने का प्रतीक है।
  • कठोर तपस्या और संयम : नागा साधु दिन में केवल एक बार भोजन करते हैं। यदि उन्हें भिक्षा नहीं मिलती, तो वे भूखे रह जाते हैं। उनका जीवन संयम, तपस्या और आत्मनियंत्रण का अद्वितीय उदाहरण है।
  • शस्त्रों और शास्त्रों का ज्ञान : नागा साधु केवल आध्यात्मिक ज्ञान में निपुण नहीं होते, बल्कि वे शस्त्रों के कुशल योद्धा भी होते हैं। उनके शस्त्र प्रशिक्षण में तलवार, त्रिशूल, भाला और धनुष-बाण जैसे हथियार शामिल हैं।
  • शास्त्र और शस्त्र का मेल : नागा साधुओं की परंपरा शास्त्र और शस्त्र के मेल पर आधारित है। उनका मानना है कि पहले संवाद और धर्मोपदेश के माध्यम से लोगों को सही मार्ग पर लाना चाहिए। लेकिन, यदि अत्याचारी और दुराचारी नहीं मानते, तो शस्त्र का सहारा लेना चाहिए।
अखाड़ों का महत्व और नागा साधु
आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए अखाड़ों की स्थापना की। ये अखाड़े धार्मिक शिक्षा, साधना और शस्त्र प्रशिक्षण का केंद्र होते हैं। देश में 13 प्रमुख अखाड़े हैं, जिनमें सबसे बड़ा जूना अखाड़ा फिर निरंजनी अखाड़ा, महानिर्वाण अखाड़ा, अटल अखाड़ा, आह्वान अखाड़ा, आनंद अखाड़ा, पंचाग्नि अखाड़ा, नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा, वैष्णव अखाड़ा, उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा, उदासीन नया अखाड़ा, निर्मल पंचायती अखाड़ा और निर्मोही अखाड़ा शामिल हैं। नागा साधु अखाड़ों का हिस्सा होते हैं। कुंभ मेले में अखाड़ों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। नागा साधु अपने अखाड़ों के नेतृत्व में प्रमुख पर्वों पर भव्यता के साथ स्नान के लिए निकलते हैं। इन्हें देखने के लिए लोगों की भारी भीड़ जुटती है।

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