1920 के AMU अधिनियम में दो संशोधन किए गए। पहला 1951 में और दूसरा 1965 में। तब यहां कई सारे परिवर्तन भी हुए। इसके तहत ही विश्वविद्यालय के प्रबंधन में गैर मुसलमानों को भी भाग लेने की अनुमित मिल गई।
AMU को क्यों मिला अल्पसंख्यक दर्जा? : 1967 का फैसला, केंद्र का दखल और फिर यू-टर्न... जानिए कैसे शुरू हुआ पूरा विवाद
Nov 08, 2024 15:41
Nov 08, 2024 15:41
- 1967 में शुरू हुआ था विवाद
- 1981 में फिर मिला अल्पसंख्यक दर्जा
- 7 जजों की बेंच को भेजा गया था केस
जानिए कब मिला था अल्पसंख्यक दर्जा
1875 में सर सैयद अहमद खां द्वारा स्थापित मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल स्कूल का उद्देश्य भारतीय मुसलमानों के बीच शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करना था, विशेष रूप से उस समय के अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव को ध्यान में रखते हुए। यहीं स्कूल बाद में कॉलेज बन गया। 1920 में, इस कॉलेज को भारतीय विधायी परिषद के एक अधिनियम के माध्यम से विश्वविद्यालय का दर्जा मिला और यह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के रूप में स्थापित हो गया। तब से एएमयू का अस्तित्व एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के रूप में कायम है। इसी समय AMU को अल्पसंख्यक दर्जा भी हासिल हुआ। ये दर्जा पाने के लिए किसी यूनिवर्सिटी को केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित कुछ मानदंडों को पूरा करना होता है, जिसमें यह साबित करना पड़ता है कि इसे खास समुदाय के छात्रों की शैक्षिक जरूरतों को पूरा करने के लिए विशेष रूप से स्थापित किया गया है।
1967 में शुरू हुआ विवाद
1920 के AMU अधिनियम में दो संशोधन किए गए। पहला 1951 में और दूसरा 1965 में। तब यहां कई सारे परिवर्तन भी हुए। इसके तहत ही विश्वविद्यालय के प्रबंधन में गैर मुसलमानों को भी भाग लेने की अनुमित मिल गई। इसके अलावा, इन संशोधनों ने विश्वविद्यालय प्रबंध समिति के अधिकारों को कम कर दिया जबकि कार्यकारी परिषद की शक्तियों को बढ़ा दिया। बस यहीं से विवाद शुरू हो गया। दलील दी गई कि मुसलमानों ने एएमयू की स्थापना की, इसलिए उनके पास इसका प्रबंध संभालने का अधिकार होना चाहिए। 1967 में, सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि एएमयू को अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह केंद्रीय विश्वविद्यालय अधिनियम के तहत स्थापित किया गया था और इसका उद्देश्य केवल मुस्लिम समुदाय के छात्रों के हितों की रक्षा करना नहीं था। कोर्ट ने कहा कि एएमयू की स्थापना भारतीय सरकार द्वारा किए गए एक कानूनी प्रयास का परिणाम थी। अदालत का यह निर्णय महत्वपूर्ण था क्योंकि इससे एएमयू के अल्पसंख्यक चरित्र को लेकर कई कानूनी और राजनीतिक विवादों की शुरुआत हुई। इसके बाद, सरकार ने 1981 में एएमयू अधिनियम में संशोधन किया, जिसने विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे को फिर से मान्यता दी।
1981 में फिर मिला अल्पसंख्यक दर्जा
1981 में किए गए संशोधन ने एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को पुनः स्थापित किया, जिससे विश्वविद्यालय को मुसलमानों के लिए विशेष संस्थान के रूप में माना गया। हालांकि, 2005 में जब एएमयू ने चिकित्सा पाठ्यक्रमों की 50 फीसदी सीटें मुस्लिम छात्रों के लिए आरक्षित कीं, तो इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इसे रद्द कर दिया। हाईकोर्ट का यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट के 1967 के फैसले पर आधारित था, जिसमें यह कहा गया था कि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती। इसके बाद, 2006 में केंद्र सरकार और अन्य पक्षों ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। लेकिन जिस केंद्र सरकार ने 2006 में हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी, 10 साल बाद उसका पक्ष बदल गया। सत्ता में दूसरी पार्टी आ चुकी थी और 2016 में केंद्र सरकार ने यू-टर्न लेते हुए अपील वापस ले ली। तब केंद्र ने कहा कि अल्पसंख्यक संस्थान की स्थापना एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के सिद्धांतों के विपरीत है।
आज आया है सुप्रीम कोर्ट का फैसला
2019 में मामले की सुनवाई करते हुए तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने केस को 7 जजों की बेंच को भेज दिया। सवाल था कि क्या एक कानूनी रूप से विनियमित संस्थान को अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में माना जा सकता है। इसी मामले में आज अदालत ने फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा कि कानून के माध्यम से विनियमित होने से किसी संस्थान का अल्पसंख्यक दर्जा समाप्त नहीं होता और संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक समुदाय को अपने शैक्षिक संस्थानों का प्रबंधन करने का अधिकार है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अल्पसंख्यक संस्थान को केवल धार्मिक पाठ्यक्रम देने की आवश्यकता नहीं है, और इसके प्रशासन में विभिन्न समुदायों के छात्रों को प्रवेश देने की अनुमति हो सकती है।
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