Mahoba News : देश की आजादी में वीरभूमि महोबा (Mahoba District) के योगदान को याद किए बिना सब अधूरा है। यहां के रणबांकुरों ने अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला दी थीं। 1857 के स्वाधीनता संग्राम (Revolt of 1857) में महोबा के लोगों ने अंग्रेजों को खदेड़ दिया था। एक तरफ सुगिरा के नरेश तो दूसरी ओर आम आदमी बरतानिया हुकूमत (British Government) से लड़ रहा था। मतलब, राजा और प्रजा ने मिलकर वह लड़ाई लड़ी थी। पांच अंग्रेज अफसरों को बकरी चराने वाले चरवाहों ने ही मौत के घाट उतार दिया था।
महोबा में 1857 की क्रांति : अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा हुआ बुंदेलखंडी राजा और बोला- 'मेरा बलिदान रजवाड़ों का स्वाभिमान जगाएगा'
Nov 27, 2023 17:59
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चरखारी की गुलामी से शुरू हुई क्रांति
बुंदेलखंड के इस इलाके में साल 1950 तक सभी रजवाड़े चरखारी स्टेट पर कब्जा करने को लालायित रहते थे। 1857 में यहां की सत्ता राजा रतन सिंह के हाथ में थी। उसने महोबा के अंग्रेज कलेक्टर कार्ने की मध्यस्थता से ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी स्वीकार कर ली। लिहाजा, जनता में विरोध के स्वर गूंजने लगे। इस पर कलेक्टर कार्ने ने भारी कत्लेआम करवाया। उस वक्त राव महीपत सिंह सुगिरा के नरेश थे। उन्होंने यह खबर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और बिठूर के तात्या टोपे को दी। सुगिरा नरेश के आमंत्रण पर दोनों क्रांतिकारी फिरंगियों को सबक सिखाने आए और यहां अपना डेरा डाल लिया। कलेक्टर कार्ने चरखारी के किले में जा छिपा। सुगिरा, झांसी और बिठूर की सेनाओं ने चरखारी को घेरकर राजा रतन सिंह पर दबाव बनाया कि कार्ने को उनके हवाले कर दे। इस बीच खबर आई कि ब्रिटिश सेना ने झांसी पर हमला कर दिया है। तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई को तुरंत वापस झांसी लौटना पड़ा। सुगिरा नरेश राव महीपत सिंह अकेले पड़ गए। चरखारी नरेश ने कार्ने का वेश बदलवाकर उसे पन्ना भेज दिया। इसके बाद चरखारी और फिरंगियों की संयुक्त सेना ने सुगिरा नरेश राव महीपत सिंह को गिरफ्तार कर लिया।
राव महीपत सिंह भूरागढ़ किले में फांसी पर झूले
राव महीपत सिंह को बांदा के भूरागढ़ किले में बंद किया गया। वहां उन्हें फांसी की सजा दी गई। अंग्रेजों ने उन्हें गुलामी स्वीकार करने और अपनी जान बचाने की सलाह दी। राव महीपत सिंह ने झुकना स्वीकार नहीं किया। वह अंत समय तक कहते रहे, "मेरा बलिदान यहां के रजवाड़ों का स्वाभिमान जगाएगा। अब आजादी की लड़ाई और तेज होगी।" वह हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए। यह घटना इतिहास के पन्ने में तो दर्ज नहीं हो पाई पर बांदा के डिस्ट्रिक्ट गजेटियर में इसका संक्षिप्त ब्यौरा उपलब्ध है। राव महीपत सिंह इस इलाके में स्वाधीनता के लिए जान देने वाले पहले सेनानी थे। उनका किला आज भी सुगिरा गांव में है। पुरातत्व विभाग ने कहने के लिए किला संरक्षित तो कर लिया है पर पूरा परिसर दुर्दशा में है।
मेरठ से उठी चिंगारी ने बुंदेलों को सुलगाया
राजा फांसी पर झूला तो आम आदमी भी पीछे नहीं रहा। मेरठ, झांसी, बैरकपुर और तराई से विद्रोह की सूचनाएं आ रही थीं। महोबा में बुंदेले रणबांकुरों की भुजाएं भी फड़कने लगीं। महोबा शहर में लोगों ने बगावत कर दी। तत्कालीन अंग्रेज जनरल व्हिटलॉक बर्बरता पर उतर आया। मुकदमा दर्ज हुआ और 16 लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई। शहर के हवेली दरवाजा में इमली के पेड़ पर ज्योरहा निवासी कल्लू और भवानी सहित 16 लोगों को लटकाकर अंग्रेजों ने क्रूरता की नजीर पेश की। जिले के गजेटियर में इस खौफनाक मंजर का जिक्र तो है, लेकिन फांसी के फंदों को चूमने वाले वीर सपूतों के नामों का जिक्र नहीं है। कल्लू और भवानी को छोड़कर बाकी की गिनती गुमनाम शहीदों में होती है। इतिहास के उस मूक गवाह इमली के पेड़ को अंग्रेजों ने काट दिया और बचा-खुचा गिर गया। इन शहीदों की स्मृति में पहले हवेली दरवाजा मैदान में मेला लगता था। जिसे दो दशक पहले बंद करवा दिया गया। अब बस ऐतिहासिक कजली मेले के अवसर पर विजय जुलूस निकलता है।
अंग्रेजों ने बर्बरता की सीमाएं पार कीं
इतिहासकार तारा पाटकार बताते हैं कि 1857 की क्रांति के दौरान महोबा के लोग इस कदर एकजुट हुए कि अंग्रेज उलटे पांव दौड़ते नजर आए। क्या आम और क्या खास, हर महोबाई अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत कर रहा था। सत्तावनी क्रांति पर अध्ययन करने वाले प्रेमचंद्र साहू बताते हैं कि महोबा में आज़ादी की जंग आम और खास ने मिलकर लड़ी थी। अंग्रेजों ने हुकूमत का खौफ फैलाने के लिए शहर के हवेली दरवाजा मैदान में लगे इमली के पेड़ पर सभी को एक साथ फांसी पर लटका दिया था।
राजाओं के साथ आम आदमी क्रांति में कूदा
महोबा में ऐतिहासिक गोरखगिरि पर्वत पर करीब डेढ़ हजार फुट ऊंचाई पर गोरों की समाधि है। जिसका एक-एक पत्थर महोबा के आम जनमानस की बहादुरी की दास्तान सुनाता है। 1857 में जब महोबा में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत हुई तो ब्रिटिश अफसर ग्रांट अपनी जान बचाने के लिए यहां से हमीरपुर की तरफ भाग गया। जहां उसकी हत्या हो गई। दूसरे अफसर कार्ने ने चरखारी के किले में शरण ली, लेकिन बाकी बचे पांच अंग्रेज अफसर अपनी जान बचाने के लिए गोरखगिरि पर्वत पर चढ़ गए। जहां जानवर चरा रहे चरवाहों ने उनकी हत्या कर दी। यह घटना बताती है कि आम आदमी अंग्रेजों के खिलाफ उस जंग में शरीक था।
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