अघोरी साधुओं की रहस्यमयी दुनिया हमेशा से लोगों के बीच चर्चा का विषय रही है। इनके बारे में कई भ्रांतियां हैं। आमतौर पर इन्हें तांत्रिक माना जाता है, जिसकी वजह से कई लोग इनके नजदीक आने से भी डरते हैं।
संतों का निराला संसार : अघोरी साधु कहां रहते हैं और क्या है इनका भोजन, जानिए कैसी होती है इनकी दुनिया
Jan 17, 2025 12:02
Jan 17, 2025 12:02
कौन होते हैं अघोरी?
अघोरी साधु भारतीय तंत्र साधना और आध्यात्मिकता का एक ऐसा पक्ष हैं, जो हमेशा से रहस्यमय और आकर्षण का केंद्र रहा है। अघोरी शब्द संस्कृत के "अघोर" से निकला है, जिसका अर्थ है "निर्भय"। ये साधु अपने वैराग्य, अद्वितीय साधना और शिवभक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं। अघोरी मुख्य रूप से भगवान शिव और माता काली की उपासना करते हैं। ये कपालिक परंपरा के अनुयायी होते हैं और जीवन-मृत्यु के चक्र को समझने और आत्मा की मुक्ति पाने का प्रयास करते हैं। अघोरी साधु अपने साधना पथ पर चलते हुए श्मशान जैसे स्थानों को चुनते हैं। उनके लिए श्मशान का महत्व केवल साधना के लिए नहीं, बल्कि जीवन और मृत्यु के चक्र को समझने का प्रतीक है। अघोरी साधुओं का मानना है कि मानव खोपड़ी या नरमुंड जीवन-मृत्यु का सबसे बड़ा प्रतीक है, इसलिए वे इसे हमेशा अपने पास रखते हैं।
अघोरी साधुओं की जीवन शैली
अघोरी साधुओं की जीवन शैली आम लोगों से बिल्कुल अलग होती है। वे अपने शरीर पर राख मलते हैं, जो श्मशान की भस्म होती है। उनके वस्त्र सामान्यतः रुद्राक्ष और नरमुंडों से बने होते हैं। यह उनका सांसारिकता से अलगाव और आध्यात्मिकता के प्रति समर्पण दर्शाता है। अघोरी साधु श्रृंगार से दूर रहते हैं। उनके लिए कोई बाहरी दिखावा मायने नहीं रखता। उनके अनुसार श्मशान की राख, नरमुंड और रुद्राक्ष ही उनके जीवन के वास्तविक प्रतीक हैं।
अघोरी साधुओं का खान-पान
अघोरी साधुओं की खान-पान की प्रणाली भी रहस्यमय और अजीब लगती है। वे कई बार मुर्दों के साथ रात गुजारते हैं और चिता का अधजला मांस भी खाते हैं। ऐसा करना उनकी साधना का हिस्सा होता है। इसका उद्देश्य यह है कि वे भय और घृणा जैसी भावनाओं को पूरी तरह समाप्त कर सकें। अघोरी साधु खाने-पीने को लेकर किसी भी प्रकार की पवित्रता या अपवित्रता का ध्यान नहीं रखते। उनके लिए यह सब सांसारिक अवधारणाएं हैं, जो आत्मा की मुक्ति के मार्ग में बाधा बनती हैं।
अघोरी साधुओं की साधना
अघोरी साधु अपनी साधना श्मशान में करते हैं, जो उन्हें सांसारिक मोह-माया से अलग करता है। साधना के दौरान वे भगवान शिव को मोक्ष का मार्ग मानते हैं और उनकी घोर उपासना करते हैं। शिव को सर्वशक्तिमान मानते हुए वे अपने अंदर भय, घृणा और मोह जैसी भावनाओं को समाप्त करने का प्रयास करते हैं। श्मशान में रहकर साधना करने के पीछे अघोरियों का मानना है कि यह स्थान उन्हें जीवन और मृत्यु के वास्तविक स्वरूप को समझने में मदद करता है। श्मशान में रहने से वे मृत्यु के भय से पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं। अघोरी साधुओं के लिए यह साधना आत्मा को शुद्ध करने और मोक्ष की ओर बढ़ने का मार्ग है।
अघोरी साधुओं के गुरु और परंपरा
अघोरी परंपरा के अनुसार उनके गुरु भगवान दत्तात्रेय हैं, जिन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश का अवतार माना जाता है। भगवान दत्तात्रेय ने उन्हें आत्मज्ञान और तंत्र साधना का मार्ग दिखाया। अघोरी साधु अपनी साधना और तंत्र विद्या में शिव की आराधना करते हैं। अघोरियों की परंपरा में ब्रह्मचर्य का पालन करना अनिवार्य नहीं है। यह उनके पंथ की स्वतंत्रता और खुलेपन को दर्शाता है। वे शिव की भक्ति में लीन रहते हैं और सांसारिक बंधनों से पूरी तरह मुक्त होते हैं।
इन स्थानों पर रहते है अघोरी साधु
भारत और नेपाल में अघोरी साधुओं के कई प्रमुख स्थान हैं। नेपाल के काठमांडू में स्थित अघोर कुटी एक प्राचीन स्थान है। भारत में पश्चिम बंगाल का तारापीठ मंदिर, उत्तर प्रदेश का चित्रकूट और उत्तराखंड का कालीमठ जैसे स्थान अघोरी साधुओं के साधना स्थलों के रूप में प्रसिद्ध हैं। चित्रकूट को अघोरियों के लिए विशेष माना जाता है क्योंकि यह भगवान दत्तात्रेय की जन्मस्थली है। यहां हर साल अनेक अघोरी साधु मोक्ष की तलाश में आते हैं।
अघोरी साधुओं का अंतिम संस्कार
अघोरी साधुओं का अंतिम संस्कार उनकी साधना और पंथ के नियमों के अनुसार होता है। आम लोगों की तरह उनके शव को जलाया या दफनाया नहीं जाता। उनके शव को 40 दिनों तक उल्टा रखा जाता है, जब तक उसमें कीड़े न लग जाएं। यह प्रक्रिया उनकी तपस्या और पापों के अंत का प्रतीक मानी जाती है। इसके बाद उनके शरीर के धड़ को गंगा में प्रवाहित किया जाता है। यह माना जाता है कि ऐसा करने से उनके सारे पाप धुल जाते हैं। 40 दिनों के बाद उनके सिर पर विशेष साधना की जाती है, जिसमें शराब का उपयोग किया जाता है।
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