गढ़ मुक्तेश्वर में कार्तिक पूर्णिमा का अनूठा मेला : ग्रामीण भारत की दिखाई देती है झलक, महाभारत से जुड़ा है मेले का इतिहास

UPT | गढ़ मुक्तेश्वर में कार्तिक पूर्णिमा का अनूठा मेला

Nov 11, 2024 19:04

दिल्ली से एक घंटे की दूरी पर उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले में स्थित गढ़ मुक्तेश्वर गंगा तट पर कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर लगने वाला मेला इस बार भी अपनी भव्यता के साथ सज चुका है। गंगा स्नान के लिए यहां दूर-दूर से लोग आते हैं और तंबुओं की अनूठी दुनिया बसती है।

Short Highlights
  • गंगा स्नान के लिए यहां दूर-दूर से आते हैं लोग
  • महाभारत से जुड़ा गढ़ मुक्तेश्वर मेला का इतिहास
  • पिण्डदान और धार्मिक संस्कार की भी मान्यता
Hapur News : दिल्ली से एक घंटे की दूरी पर उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले में स्थित गढ़ मुक्तेश्वर गंगा तट पर कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर लगने वाला मेला इस बार भी अपनी भव्यता के साथ सज चुका है। गंगा स्नान के लिए यहां दूर-दूर से लोग आते हैं और तंबुओं की अनूठी दुनिया बसती है। यह मेला ग्रामीण भारत की पुरानी झलक को आज भी समेटे हुए है, जहां लोग बैलगाड़ी, भैंसा बुग्गी और सादगी से भरे पुराने परिवेश में आनंदित होते हैं। मेला क्षेत्र में गंगा की रेती पर रेत में लोटने और गंगा स्नान करने से स्वास्थ्य लाभ की कामना की जाती है।

महाभारत से जुड़ा गढ़ मुक्तेश्वर मेला का इतिहास
गढ़ मुक्तेश्वर मेले का इतिहास लगभग पांच हजार साल पुराना है और यह महाभारत से जुड़ा हुआ है। जब धर्मराज युधिष्ठिर और अर्जुन ने युद्ध के बाद अपार दुख और ग्लानि महसूस की, तो उन्होंने भगवान कृष्ण की उपस्थिति में यह तय किया कि गंगा में स्नान और पिण्डदान करने से मृतक आत्माओं को शांति मिलेगी। इस परंपरा के तहत कार्तिक मास की एकादशी को यहां विशेष रूप से पिण्डदान और धार्मिक संस्कार किए जाते हैं, जिन्हें "देवोत्थान एकादशी" कहा जाता है।


प्राकृतिक चिकित्सा और आस्था का संगम
यह मेला न सिर्फ धार्मिक, बल्कि प्राकृतिक चिकित्सा के लिए भी प्रसिद्ध है। रेतीले तट पर लोग रेत में लोटते हैं और सूर्य की ऊर्जा को अपने शरीर में समाहित करते हैं। इसके बाद गंगा स्नान करने से शारीरिक और मानसिक लाभ प्राप्त करने की मान्यता है। इस दौरान युवाओं और बुजुर्गों को गंगा तट पर रेत में लोटते हुए देखा जा सकता है, जबकि कुश्ती और कबड्डी जैसे पारंपरिक खेल भी खेले जाते हैं। यह माहौल प्राचीन भारत की याद दिलाता है और यहां की आस्था को भी दर्शाता है।

मेले में बांसुरी और लाठी की बिक्री
मेले में आज भी कई पारंपरिक वस्तुएं बिक रही हैं, जैसे कि बांसुरी और लाठी। बच्चों को कंप्यूटर या मोबाइल की बजाय भगवान कृष्ण की बांसुरी खरीदते देखा जा सकता है। वहीं, लाठी का बाजार भी गर्म है, जहां किसान और ग्रामीण आधुनिक हथियारों की बजाय पारंपरिक लाठियां खरीद रहे हैं। इस मेला में प्राचीन भारतीय संस्कृति की झलक साफ नजर आती है, जहां लोग आज भी अपनी परंपराओं और रीति-रिवाजों का पालन करते हैं।

आध्यात्मिक और सामाजिक एकता का संदेश
मेले में हर हर गंगे के उद्घोष से वातावरण गंगामय हो जाता है। लक्कड़ महाराज की जय के नारे लगाते हुए युवा टोली इस भूमि को और भी श्रद्धापूरण बना देती है। विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक विचारधाराओं के लोग यहां एकत्र होते हैं और आपसी प्रेम और एकता का संदेश देते हैं। कहीं तिरंगा और भगवा झंडे लहराते हुए दिखाई देते हैं, तो कहीं लोग अपने धार्मिक आयोजनों में व्यस्त होते हैं। यह मेला न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि समाजिक एकता का भी सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है।

Also Read