एएमयू के मदरसे से विश्वविद्यालय तक का सफर : छात्रों के विरोध के आगे झुकी इंदिरा सरकार, 1981 में बहाल किया अल्पसंख्यक स्वरूप

UPT | Aligarh Muslim University

Nov 08, 2024 23:21

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में मान्यता दी जा सकती है, जबकि इससे पहले इसे केंद्रीय विश्वविद्यालय होने के कारण अल्पसंख्यक दर्जा नहीं दिया गया था...

Short Highlights
  • एएमयू की स्थापना के पीछे सर सैयद का दूरगामी उद्देश्य
  • एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर हुए बदलाव और विवाद
  • छात्रों के विरोध के आगे झुकी इंदिरा सरकार
New Delhi News : सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के अल्पसंख्यक दर्जे से जुड़ी 1967 में दिए गए फैसले को पलट दिया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में मान्यता दी जा सकती है, जबकि इससे पहले इसे केंद्रीय विश्वविद्यालय होने के कारण अल्पसंख्यक दर्जा नहीं दिया गया था। यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में सात सदस्यीय संविधान पीठ ने सुनाया। 

भाजपा सांसद ने जताया विरोध
इस फैसले के बाद एएमयू में खुशी की लहर दौड़ गई, क्योंकि विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा मिलने से उसे विशेष अधिकार मिलेंगे। हालांकि, यह फैसला यहां के भाजपा सांसद सतीश गौतम को पसंद नहीं आया। उन्होंने इस निर्णय पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे का कोई औचित्य नहीं है और सरकार को चाहिए कि वह इस संस्थान को अल्पसंख्यक स्वरूप के तहत दी जा रही सारी मदद को तुरंत रोक दे। इस मामले में फैसला आते ही एएमयू के छात्रों और कर्मचारियों ने राहत की सांस ली, जबकि राजनीतिक प्रतिक्रिया इस फैसले के पक्ष और विपक्ष दोनों में आई है। सांसद सतीश गौतम ने अपने बयान में इस मुद्दे को सख्ती से उठाते हुए कहा कि इस तरह की विशेष मान्यता केवल एएमयू के लिए नहीं बल्कि समग्र समाज के लिए उचित नहीं है।



इस साल हुई मदरसे की स्थापना
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) का इतिहास काफी पुराना है, जिसकी नींव 1875 में एक मदरसे के रूप में रखी गई थी। इसके बाद, 1877 में इस मदरसे को एमएओ कॉलेज के रूप में रूपांतरित किया गया। 1920 में इसे एक विश्वविद्यालय का दर्जा मिला और फिर 1951 में स्वतंत्र भारत में एएमयू एक्ट में कुछ बदलाव किए गए। हालांकि, 1965 में सरकार ने एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को समाप्त कर दिया, जिससे एक लंबा विवाद शुरू हुआ। 

इसलिए अलीगढ़ में स्थापित हुआ एएमयू
सुप्रीम कोर्ट में पेश किए गए दस्तावेज़ों के अनुसार, एएमयू की स्थापना के लिए अलीगढ़ का चयन एक गहन सर्वेक्षण के बाद किया गया था। विभिन्न जिलों के पर्यावरण और भौगोलिक परिस्थितियों का अध्ययन किया गया था और यह सर्वे तत्कालीन सिविल सर्जन डॉ. आर. जैक्सन, पीडब्ल्यूडी इंजीनियर हंट और अलीगढ़ के तत्कालीन जिलाधिकारी हैनरी जार्ज लॉरेंस द्वारा किया गया था। रिपोर्ट में यह बताया गया कि अलीगढ़ उत्तर भारत का सबसे उपयुक्त जिला है, जहां एक शिक्षण संस्थान की स्थापना के लिए सभी जरूरी शर्तें पूरी होती थीं।

प्राकृतिक दृष्टिकोण से भी सुरक्षित है अलीगढ़ 
यह क्षेत्र प्राकृतिक दृष्टिकोण से भी बहुत सुरक्षित है, क्योंकि यहां आने वाले पांच-छह हजार वर्षों तक न तो बाढ़ का खतरा है और न ही अकाल का। पानी का स्तर भी काफी ऊंचा है, लगभग तीस फीट तक, जो इस क्षेत्र की जलवायु की स्थिरता को दर्शाता है। इसके अलावा, यहां स्थित 74 एकड़ भूमि पर फौजी पड़ाव की जगह खाली पड़ी हुई थी, जिससे इस इलाके का भूगोल और भी आकर्षक बनता है। यातायात के लिहाज से भी यह क्षेत्र लाभकारी है, क्योंकि यहां जीटी रोड और दिल्ली-हावड़ा ट्रेन मार्ग के बीच कनेक्टिविटी है। इस स्थिति में, 24 मई 1875 को मदरसा की स्थापना उसी छावनी में की गई, जो बाद में 1877 में एमएओ कॉलेज में बदल गया। इसके बाद, 1898 में सर सैयद अहमद खान के निधन के बाद, सर सैयद मैमोरियल कमेटी की स्थापना हुई, जिसने 1920 में ब्रिटिश संसद में एएमयू के गठन के लिए आंदोलन चलाया और अंततः इसका बिल पास हुआ।

भोपाल की बेगम बनीं थी पहली चांसलर
एएमयू को मान्यता देने के लिए सरकार ने 30 लाख रुपये लिए थे। इस समय तक संस्थान 13 विभागों के साथ संचालित होता था और एएमयू की जामा मस्जिद को केंद्र मानकर 25 किमी के दायरे में स्थित किसी भी शैक्षिक संस्थान को एएमयू से जोड़ने की अनुमति दी गई थी। एएमयू एक्ट में यह प्रावधान किया गया था कि इसके प्रबंधन का अधिकार केवल मुस्लिम समुदाय को दिया जाए और केवल मुस्लिम ही इसके कोर्ट सदस्य बन सकते थे, जो कि विश्वविद्यालय की सर्वोच्च संस्था मानी जाती थी। इसके अलावा, भोपाल की बेगम सुल्तान जहां को पहली चांसलर और राजा महमूदाबाद को पहले कुलपति के रूप में नियुक्त किया गया। इसके साथ ही, यहां पढ़ने वाले मुस्लिम छात्रों के लिए दीन की शिक्षा को अनिवार्य किया गया, जिससे यह संस्थान अपने धार्मिक और शैक्षिक उद्देश्यों में एक विशिष्ट पहचान बना सका।

कब हुई विवाद की शुरुआत
इस विवाद की शुरुआत 1951 में हुई, जब भारत के संविधान के लागू होने के बाद, बीएचयू और एएमयू के एक्ट में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव किए गए। इन परिवर्तनों के तहत, यह निर्धारित किया गया कि अब कोई भी व्यक्ति, चाहे वह गैर-मुस्लिम हो, एएमयू के कोर्ट सदस्य बन सकता है। इसके साथ ही, एएमयू को एक राष्ट्रीय महत्व की संस्था भी घोषित किया गया। हालांकि, इन बदलावों के साथ एएमयू की प्रवेश नीति में भी बदलाव किया गया और राष्ट्रपति को इसका विजिटर बनाया गया। इन परिवर्तनों के खिलाफ विरोध तेज हो गया और इसके चलते 1965 में एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा समाप्त कर दिया गया, जिससे विवाद और गहरा हो गया। 

सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी अपील
इस बदलाव के खिलाफ मद्रास के एस. अजीज बाशा ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की, हालांकि उनका न तो एएमयू से कोई संबंध था और न ही उनका अलीगढ़ से कोई ताल्लुक था। सुप्रीम कोर्ट ने 1967 में इस याचिका को खारिज कर दिया और कहा कि न तो एएमयू की स्थापना मुस्लिम अल्पसंख्यकों द्वारा की गई थी और न ही इसका संचालन उनके द्वारा किया गया था। इसके बाद यह मामला व्यापक विरोध का कारण बना और सियासी दबाव बढ़ा। इसके कारण, इंदिरा गांधी की सरकार पर लगातार दबाव बना और विपक्षी दलों ने इसे अपने चुनावी घोषणा पत्र में शामिल किया। इसके बाद, 1981 में संसद में एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को फिर से बहाल किया गया, जब यह स्पष्ट किया गया कि यह संस्थान भारतीय मुस्लिमों द्वारा स्थापित किया गया था और यह उनकी शैक्षिक और सांस्कृतिक उन्नति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था।

मनमोहन सिंह सरकार ने एएमयू को माना अल्पसंख्यक संस्थान
1981 के फैसले के बाद, 2004 में मनमोहन सिंह की सरकार ने एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान मानते हुए इसे अपनी प्रवेश नीति में परिवर्तन करने का अधिकार दिया। इस परिवर्तन के तहत, एएमयू ने एमडी-एमएस प्रवेश में आरक्षण की व्यवस्था लागू की, जिसका विरोध हुआ। दो आवेदकों, डॉ. नरेश अग्रवाल और अन्य ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में इस फैसले को चुनौती दी। हाईकोर्ट ने 2006 में एएमयू के खिलाफ फैसला दिया, जिसमें कहा गया कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। इसके बाद, यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया, जहां अदालत ने आदेश दिया कि जब तक इस बारे में कोई ठोस सबूत नहीं मिलते, तब तक स्थिति बनी रहेगी। इस फैसले के बाद, तीन जजों की बेंच ने इस मामले की सुनवाई शुरू की।

नौ महीने पहले पूरी हो चुकी सुनवाई
सुप्रीम कोर्ट में एएमयू से संबंधित मामले की सुनवाई नौ महीने पहले पूरी हो चुकी थी, लेकिन अंतिम फैसला शुक्रवार को आया, जब मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने सेवानिवृत्त होने से पहले इस पर निर्णय दिया। पहले एएमयू ने यह तर्क रखा था कि चूंकि इस मामले की सुनवाई पांच जजों की बेंच कर चुकी थी, इसलिए इसे फिर से नहीं सुना जाना चाहिए। इसके बाद, 2019 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले को सात जजों की संविधान पीठ के पास भेज दिया था। इस पीठ में न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा शामिल थे। इन सभी ने एएमयू और अन्य पक्षों की दलीलें सुनने के बाद 1 फरवरी 2024 को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था, जो अब आया है।

शिक्षा मंत्री ने किए थे प्रवेश नीति में बदलाव
इससे पहले, 1963 में तत्कालीन शिक्षा मंत्री एमसी छागला ने एएमयू की प्रवेश नीति में मामूली बदलाव किए थे, जिसके बाद भारी विरोध हुआ था। उस समय एएमयू के कुलपति अली आबर जंग थे, जो शिक्षा मंत्री के मित्र थे। इसी तरह, 1972 में जब नूरुल हसन शिक्षा मंत्री बने, तो एएमयू की प्रवेश नीति में कुछ और बदलाव किए गए, जिससे विरोध और बढ़ा। इसी विरोध के कारण 1981 में सरकार ने एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा फिर से बहाल किया।

2004 में आया 50 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान
अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में, एचआरडी मंत्रालय ने एएमयू के जेएन मेडिकल कॉलेज में ऑल इंडिया कोटे के तहत 50 प्रतिशत सीटों के आरक्षण का प्रस्ताव दिया, जिसे एएमयू ने खारिज कर दिया। इसके बाद, 2004 में मनमोहन सिंह सरकार ने एएमयू को अपनी प्रवेश नीति में बदलाव करने की अनुमति दी, जिसके तहत मुस्लिम छात्रों के लिए एमडी-एमएस प्रवेश में 50 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया। इसके खिलाफ नरेश अग्रवाल और अन्य आवेदकों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर की और कोर्ट ने 2006 में एएमयू के खिलाफ फैसला सुनाया।

2016 में केंद्र सरकार ने वापस लिया हलफनामा
हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान एएमयू ने अपना कोई वकील नहीं रखा, बल्कि केंद्र सरकार ने अपनी ओर से वकील खड़ा किया। हाईकोर्ट के फैसले के बाद, केंद्र सरकार ने 2006 में सुप्रीम कोर्ट में अपील की, लेकिन 2014 में भाजपा सरकार आने के बाद, 2016 में केंद्र सरकार ने अपना हलफनामा वापस ले लिया। इसके बाद, एएमयू और अन्य पक्षों ने इस मामले की पैरवी शुरू की। 

अब तक कई प्रमुख वकील कर चुके हैं पैरवी
इस विवाद में अब तक एएमयू के पक्ष में कई प्रमुख वकील, जैसे कपिल सिब्बल, ने पैरवी की है। सरकार ने कहा कि एएमयू सरकारी संस्थान है क्योंकि इसे सर सैयद अहमद खां ने स्थापित किया था, जो उस समय सरकारी मुलाजिम थे। हालांकि, एएमयू ने इस तर्क का विरोध करते हुए कहा कि सर सैयद सेवानिवृत्त होने के बाद मदरसा स्थापित करने के लिए आगे आए थे, इस कारण वे उस समय सरकारी मुलाजिम नहीं थे। इसके अलावा, एएमयू ने यह तर्क भी दिया कि ब्रिटिश संसद ने एएमयू का बिल पास किया था और इसीलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान माना जाना चाहिए। 

एएमयू कॉलेज को लेकर सरसैयद का दूरगामी उद्देश्य
डा. राहत अबरार बताते हैं कि सर सैयद अहमद खां का दूरगामी उद्देश्य था कि एएमयू कॉलेज एक बरगद के पेड़ की तरह फैले और अन्य संस्थाएं इससे जुड़ीं। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए उन्होंने जनसहयोग से चंदा इकट्ठा किया। एएमयू की स्थापना में 268 व्यक्तियों ने 25 रुपये से लेकर 500 रुपये तक का योगदान दिया था और इन लोगों के नाम अब भी एएमयू के विभिन्न हिस्सों में अंकित हैं।

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