इलाहाबाद हाईकोर्ट ने की अहम टिप्पणी : जमानत याचिका खारिज करना सबक सिखाने का तरीका नहीं, संविधान के अनुच्छेद 21 का दिया हवाला

UPT | इलाहाबाद हाईकोर्ट

Oct 26, 2024 11:43

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया कि किसी भी अभियुक्त को सबक सिखाने के उद्देश्य से जमानत याचिका खारिज कर उसे कारावास का अनुभव करवाना उचित नहीं है।

Prayagraj News : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया कि किसी भी अभियुक्त को सबक सिखाने के उद्देश्य से जमानत याचिका खारिज कर उसे कारावास का अनुभव करवाना उचित नहीं है। अदालत का मानना है कि जमानत पर विचार करते समय आरोपों की गंभीरता और सजा की संभावना के अलावा इस बात पर अधिक ध्यान देना चाहिए कि अभियुक्त के फरार होने या गवाहों को धमकाने का जोखिम है या नहीं।

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जमानत याचिका पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का रुख
यह टिप्पणी हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति अरुण कुमार सिंह देशवाल की एकल पीठ ने माया तिवारी नामक अभियुक्ता की जमानत याचिका स्वीकार करते हुए दी। माया तिवारी पर एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड योजना के तहत फर्जी निविदाएं जारी कर ठगी करने के आरोप में भारतीय दंड संहिता की धारा 406, 420, 419, 467, 468, 471, 120-बी तथा आईटी अधिनियम की धारा 66-डी के तहत मामला दर्ज किया गया था। तिवारी को पिछले वर्ष अक्टूबर में गिरफ्तार किया गया था और उन पर आरोप था कि वे एक संगठित गिरोह के साथ मिलकर मंत्रालय के उप सचिव के नाम पर जाली निविदाएं जारी कर रही थीं। इस आधार पर उन्होंने अदालत में जमानत की मांग की थी।

गिरफ्तार अभियुक्ता पर फर्जीवाड़े का आरोप
तिवारी के वकील सौरभ पांडे ने दलील दी कि अभियुक्ता ने अपने ऊपर लगे आरोपों से संबंधित राशि का एक बड़ा हिस्सा पहले ही लौटाया है। उनके अनुसार, तिवारी को मुख्य आरोपी संतोष कुमार सेमवाल ने धोखा दिया, जिसने प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी नकली कार्य आदेश तैयार किया और उसे तिवारी के व्हाट्सएप पर भेजा। तिवारी ने इसे ईमानदारी से शिकायतकर्ता को भेजा था, जिसे बाद में ठगी का मामला बना दिया गया। वकील ने सुप्रीम कोर्ट के मनीष सिसोदिया बनाम प्रवर्तन निदेशालय 2024 मामले का हवाला देते हुए कहा कि जमानत दंडात्मक नहीं होनी चाहिए, और लंबे समय तक हिरासत में रखने के बजाय अभियुक्त को रिहा करना न्यायसंगत है।



राशि लौटाने का दावा
राज्य सरकार के अधिवक्ता ने याचिका का विरोध करते हुए तर्क दिया कि तिवारी के व्हाट्सएप से ही फर्जी कार्य आदेश भेजा गया था और उनके खाते में बड़ी धनराशि स्थानांतरित की गई थी। उनके पति और बेटी के खाते में भी पैसे भेजे गए थे। साथ ही, उन्होंने खुद को प्रधानमंत्री कार्यालय का उच्च अधिकारी बताकर धोखा देने की कोशिश की थी। राज्य पक्ष ने यह भी तर्क दिया कि यदि तिवारी को उनके सह-आरोपी द्वारा धोखा दिया गया था, तो उन्हें पुलिस में शिकायत दर्ज करानी चाहिए थी।

संविधान के अनुच्छेद 21 का हवाला
अदालत ने इन सभी दलीलों पर विचार करते हुए रिकॉर्ड का अवलोकन किया और पाया कि मामले में शिकायतकर्ता को पहले ही 8,70,000 रुपये लौटा दिए गए थे, जबकि विवादित राशि केवल 5,20,500 रुपये ही थी। न्यायालय ने यह भी ध्यान दिया कि अभियुक्ता के जेल में रहने के बावजूद अब तक कोई आरोप तय नहीं किया गया है और मुकदमे का शीघ्र निपटारा भी संभव नहीं है। इसी आधार पर अदालत ने कहा कि अभियुक्ता के पूर्व आचरण के आधार पर उसे सबक सिखाने के लिए जमानत खारिज करना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा।

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राज्य सरकार की दलील
अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के जलालुद्दीन खान बनाम भारत संघ 2024 मामले का भी हवाला दिया, जिसमें निर्दोषता की धारणा को भारत में न्यायिक प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा बताया गया है। इस मामले में कहा गया था कि जमानत नियम है, जेल अपवाद। विशेष कानूनों के तहत भी यह मान्यता दी गई है कि एक अभियुक्त को लंबे समय तक जेल में नहीं रखा जाना चाहिए।

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