Anant Radhika Wedding : बनारसी बुनकर तैयार कर रहे हैं अंबानी परिवार की शादी के लिए साड़ियां, जानें इस कारीगरी में क्या है खास...

UPT | तैयार हो रही हैं साड़ियां।

Jun 29, 2024 18:00

नीता अंबानी ने अपनी बनारस यात्रा के दौरान शहर के कई प्रसिद्ध साड़ी दुकानों का दौरा किया और बनारसी बुनकरों से मिलीं। उन्होंने न केवल कई दुकानों से साड़ियां खरीदीं, बल्कि कई बुनकरों को विशेष ऑर्डर भी दिए।

Banarasi saree : मुकेश अंबानी के छोटे बेटे अनंत अंबानी और राधिका मर्चेंट की शादी भारत की सबसे चर्चित घटनाओं में से एक बनने जा रही है। यह विवाह 12 जुलाई को होने वाला है, और इसकी तैयारियां पूरे जोर-शोर से चल रही हैं। इस शाही शादी की तैयारियों में एक रोचक मोड़ तब आया, जब नीता अंबानी ने हाल ही में बनारस का दौरा किया। बनारस, जो अपनी संस्कृति और परंपराओं के लिए जाना जाता है, अब अंबानी परिवार की शादी में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहा है। नीता अंबानी ने अपनी यात्रा के दौरान शहर के कई प्रसिद्ध साड़ी दुकानों का दौरा किया और बनारसी बुनकरों से मिलीं। उन्होंने न केवल कई दुकानों से साड़ियां खरीदीं, बल्कि कई बुनकरों को विशेष ऑर्डर भी दिए।
  सोने और चांदी की जरी से तैयार की जा रही हैं साड़ियां 
अंबानी परिवार द्वारा दिए गए ऑर्डर ने बनारस के बुनकर समुदाय में उत्साह की लहर दौड़ा दी है। गोलाघाट वाराणसी के मालिक अक्षय कुशवाहा ने इस अवसर पर अपनी खुशी व्यक्त करते हुए कहा, "यह हमारे लिए एक बड़ा सम्मान है कि अंबानी परिवार ने हमारी साड़ियों को चुना है। हमें कुछ साड़ियां मुंबई भेजने का ऑर्डर मिला है, और हम इस काम को पूरी लगन और कुशलता से कर रहे हैं।" कुशवाहा ने आगे बताया कि इन विशेष साड़ियों को सोने और चांदी की जरी से तैयार किया जा रहा है, जो इन्हें अद्वितीय और मूल्यवान बनाता है। उन्होंने कहा, "इन साड़ियों की कीमत एक लाख रुपये से लेकर पांच लाख रुपये तक है। हमें लगभग 10-15 साड़ियां बनाने का काम मिला है, और हम इन्हें असली जरी से तैयार कर रहे हैं।"



हजारा बूटी बनारसी साड़ी में अंबानी परिवार की रूचि 
बुनकरों के अनुसार, अंबानी परिवार ने विशेष रूप से गुलाबी रंग की साड़ियों में रुचि दिखाई है। इनमें सबसे ज्यादा पसंद की गई साड़ी 'हजारा बूटी बनारसी साड़ी' है, जो अपने विशिष्ट डिजाइन और उत्कृष्ट कारीगरी के लिए जानी जाती है। यह ऑर्डर न केवल बनारस के बुनकरों के लिए एक बड़ा अवसर है, बल्कि यह भारतीय हस्तशिल्प और परंपरागत कला के लिए एक बड़ा प्रोत्साहन भी है। इस तरह के बड़े ऑर्डर से स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा और बुनकरों के कौशल को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिलेगी।

2-3 जुलाई तक सभी साड़ियां करनी है तैयार
बुनकर समुदाय अब दिन-रात मेहनत कर रहा है ताकि वे समय पर अपने ऑर्डर पूरे कर सकें। उनका लक्ष्य है कि 2-3 जुलाई तक सभी साड़ियां मुंबई पहुंच जाएं। यह न केवल एक व्यावसायिक लेनदेन है, बल्कि बनारस की कला और संस्कृति को वैश्विक मंच पर प्रदर्शित करने का एक अनूठा अवसर भी है। यह घटना बनारस के बुनकरों के लिए एक सुनहरा अवसर साबित हो रही है, जो अपनी कला और कौशल को देश और दुनिया के सामने प्रदर्शित करने का मौका पा रहे हैं।
 

#WATCH वाराणसी, उत्तर प्रदेश: बनारसी बुनकरों को अंबानी परिवार की शादी के लिए साड़ियां तैयार करने का ऑर्डर दिया गया है।(28.06) pic.twitter.com/lviutpCyhw

— ANI_HindiNews (@AHindinews) June 29, 2024 बनारसी साड़ियों की खासियत
बनारसी साड़ियां अपनी असाधारण कारीगरी और उत्कृष्ट गुणवत्ता के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं। ये साड़ियां न केवल एक वस्त्र हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति और परंपरा का प्रतीक भी हैं। विशेष रूप से, मांगलिक अवसरों और शादी समारोहों में बनारसी साड़ियों को पहनना शुभ माना जाता है। सनातन परंपरा के अनुसार, इन साड़ियों को पवित्रता का प्रतीक भी माना जाता है।

बनारसी साड़ी नाम कैसे पड़ा?
बनारसी साड़ी का नाम उत्तर प्रदेश के बनारस (वाराणसी) शहर से आया है, जहां इनका मुख्य उत्पादन केंद्र है। हालांकि, आसपास के जिलों जैसे जौनपुर, चंदौली, आजमगढ़, मिर्जापुर और संत रविदासनगर में भी इनका निर्माण होता है। बनारस से ही इन साड़ियों के लिए जरी और रेशम जैसा कच्चा माल प्राप्त होता है, जिससे इन्हें 'बनारसी साड़ी' का नाम मिला।

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कैसे बनती हैं बनारसी साड़ी ?
बनारसी साड़ी के निर्माण में रेशम का उपयोग किया जाता है, जिसे बनारस की बुनाई और जरी के डिजाइन से सजाया जाता है। पहले इनमें सोने की जरी का उपयोग होता था। एक साड़ी को हाथ से बनाने में तीन कुशल कारीगरों की मेहनत लगती है। बनारसी साड़ियों में विभिन्न प्रकार के 'मोटिफ' या नमूने होते हैं, जैसे बूटी, बूटा, कोनिया, बेल, जाल, जंगला और झालर, जो इनकी विशिष्ट पहचान हैं।

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बनारसी साड़ी का इतिहास
बनारसी साड़ी की कला का इतिहास मुगल काल से जुड़ा है। यह कला ईरान, इराक और बुखारा से आए कारीगरों द्वारा भारत में लाई गई। मुगल शासक इस कला का उपयोग पटका, शेरवानी, पगड़ी, साफा, दुपट्टे, बिस्तर की चादरें और मसनद जैसे वस्त्रों में करते थे। भारत में साड़ी पहनने की प्रचलित परंपरा के कारण, स्थानीय हथकरघा कारीगरों ने धीरे-धीरे इस डिजाइन को साड़ियों में अपना लिया।

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